नज़्म

मौसम बंधे थे क़दमों से ,
रुत आहट से बदल जाती थी ,
सर्द मौसम में बर्फ़ ढके आँगन पर
वो जो आ जाय तो धूप निकल आती थी .
ज़र्द हो रहे बुढ़ा रहे चिनारों पर ,
बेमौसम ही बहार उतर आती थी ,
कड़ी धूप से दरकी हुई ज़मीन पर ,
साथ क़दमों के फुहार चली आती थी .
घुटन भरे उदास सावन में,
यकायक साँस लौट आती थी ,
उन क़दमों की आहट सुनते ही
बरसात भी थम जाती थी ।
वो क़दम जिन्हें थाम के चूमा था ,
मेरी हद से दूर निकल गए ,
जिंदा मछलियों के मानिंद हाथ से ,
सारे मौसम फिसल गए ।

असली समाचार की दुनिया

ज़ी समाचार चैनल पर श्री सुभाष चंद्र का यह वक्तव्य कि 'ज़ी समाचार' असली समाचार की दुनिया में लौटेगा;भारतीय इलेक्ट्रोनिक समाचार जगत में सुखद बदलाव का संकेत माना जा सकता है । इस वक्तव्य को सुनकर मुझे अपने सम्मानित मित्र श्री दीपेंद्र बघेल का कथन याद आ गया । उपग्रह समाचार चैनलों की सामग्री और प्रस्तुतीकरण को लेकर रेडियो के एक टॉक शो के अंत में माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के संकाय सदस्य श्री बघेल ने कहा था कि वर्तमान परिदृश्य को देखकर हमें निराश होने की आवश॒यकता नही है। यह समाचार चैनलों की शुरुआती अवस्था है। समय के साथ यह चैनल परिपक्व होंगे और तब स्तिथि शायद इतनी निराशाजनक न हो .वैसे अभी से खुश होना मूर्खता भी होगी। यह संकेत सिर्फ़ एक संकेत बनकर भी रह सकता है । यह नई समाचार टीम की 'लौन्चिंग' का स्टंट भी हो सकता है। क्या कोई समाचार चैनल रातों रात यूं अपना चोला बदल सकता है?इन प्रश्नों का उत्तर समय ही दे सकता है पर इतनी बात तो निश्चित है कि आत्मावलोकन हो रहा है। यह किसी हद तक स्वीकारोक्ति भी है कि समाचार चैनल असली समाचारों की दुनिया से भटककर एक ऐसी दुनिया में विचरण कर रहे हैं जो उनकी ख़ुद की बनाई मायावी दुनिया है.इस मायावी दुनिया में भूत प्रेत हैं ,नरपिशाच हैं ,नृत्य करते कंकाल हैं ,तो एंकर के रूप में महाकाल भी हैं। क्षत विक्षत शव हैं तो कपड़े उतारती चीयर गर्ल भी हैं.प्रचार की आतुर बॉलिवुड बालाएं हैं तो सेलेब बनाने के नए नए तरीके भी हैं.

तीन क़ते रेलगाड़ी में

जब से एक खाली कुल्हड़
खिड़की से गिरा और चूर हुआ
मैं तमाम सफर खिड़की से
जो दूर हुआ तो दूर हुआ।
एक भीड़ मुसल॒सल
कस्बों ,शहरों का नाम पढ़ती रही ,चढ़ती रही, उतरती रही
मैं ख़ुद से तेरा पता पूछता रहा
तैरता रहा ,डूबता रहा।
तेरे शहर से गुज़रते वक्त
जिस्म में एक जुम्बिश सी हुई
बचपन में तुझ संग खेली कोई हवा
शायद मुझे छू के गई ।

लड़की

रात की पाली के बाद
जब वह थका माँदा भूखा ही सो गया
तब सपने में लड़की आई ज़रूर
लेकिन रजनीगंधा नही बल्कि रोटियाँ लेकर
फोकस रोटियों पर था और लड़की धुंधलके में
फिर लड़की फ्रेम से बाहर हो गई
वह रोटियों पर टूट पड़ा
सपना टूट गया
भूख बेकाबू हो चुकी थी
कुछ खा चुकने के बाद
जब वह बिस्तर पर लेटा
उसे अफ़सोस हुआ कि सपने में
उसका ध्यान सिर्फ़ रोटियों पर था.

नज़्म

मौसम बंधे हैं क़दमों से ,
रुत आहट से बदल जाती है ,
सर्द मौसम में बर्फ़ ढके आँगन पर
वो जो आ जाय तो धूप निकल आती है .
ज़र्द हो रहे बुढ़ा रहे चिनारों पर ,
बेमौसम ही बहार उतर आती है,
कड़ी धूप से दरकी हुई ज़मीन पर ,
साथ क़दमों के फुहार चली आती है.
घुटन भरे उदास सावन में,
यकायक साँस लौट आती है,
उन क़दमों की आहट सुनते ही
बरसात भी थम जाती है .