रेडियो का परकाया प्रवेश सिद्धि मन्त्र


जब रेडियो को बंद करने के बाद भी  उससे आवाज़ें आनी बंद नहीं होती थीं तो मैं बुरी तरह डर जाया करता था। ऐसा लगता जैसे रेडियो भुतहा हो चला है और  रज़ाई के अंदर मुझे पसीने छूटने लगते । ये बात उन दिनों की है जब मैं नौ-दस साल का था। हमारे घर में फिलिप्स का एक बेहद खूबसूरत रेडियो हुआ करता  था ,मक्खनी रंग का । उसका आवरण न जाने किस पदार्थ का था । वो प्लास्टिक नहीं वरन  मज़बूत कपड़े जैसा कुछ था । इतने सुंदर रेडियो को  चमड़े  के काले और बदसूरत कवर से ढक कर रखने का  औचित्य मुझे कभी  समझ नहीं आया ।हमारे छोटे से घर के बाहर वाले कमरे में उसे रखने के लिए लकड़ी का एक रैक बना था। उस तक पहुंचने के लिए मुझे सोफे के हत्थे पर चढ़ना होता था। अमूमन रात को हिंदी समाचारों के समय पिताजी उसे खोला करते  और समाचार ख़त्म होते ही हमारे सोने का समय हो जाता था। जब पिताजी अच्छे मूड में होते तो हमें 'हवा महल' सुनने को मिलता। 'हवा महल' सुनते वक़्त जैसे कल्पनाओं को पंख लग जाते ।फिर रज़ाई में दुबककर मैं देर रात तक उन नाटकों  के बारे में सोचा करता। उन्हीं दिनों की बात है जब एक सपना   मुझे  लगातार परेशान  करता था....मैं सोफे के हत्थे पर चढ़कर रेडियो खोलता और जब उसे बंद करता तो उससे आवाज़ें आना जारी रहतीँ..फिर  लगता कि  पिताजी के ऑफिस से लौटने का समय हो चुका है, वो किसी भी क्षण आते ही होंगे... रेडियो का स्विच खोलकर दोबारा बंद करता  लेकिन आवाज़ें आना बंद नहीं होती...डर के मारे अजीब सी घबराहट होने लगती और  नींद खुल जाया करती थी । न जाने कितनी बार इस डरावने सपने के कारण मेरी नींदें उचटी होंगी ।कुछ बड़ा हुआ तो दिन के वक़्त पढ़ने का नाटक करते हुए मैं अक्सर रेडियो खोल लिया करता। मेरे लिए वह एक जानदार दोस्त था । शायद इसीलिए मरम्मत के दौरान जब पहली बार एक रेडियो खुला  देखा तो बेजान कल पुर्ज़े देखकर घोर निराशा हुई थी।कुछ बरसों के बाद रेडियो  ऐसा जादुई बक्सा बन गया जिस पर फ़िल्मी गाने आते ही हवा में रुमानियत घुलने लगती । अल्हड़ लड़कपन के उन दिनों कोई गीत  कानों में पड़ते ही हज़ारों तस्वीरें बनती बिगड़ती। उन दृश्यों में एक लड़की ज़रूर हुआ करती थी जिसकी शक़्ल हर गीत के साथ कुछ बदल जाया करती । मेरी वह प्रियतमा अस्ल  लड़की नहीं बल्कि मेरी कल्पना शक्ति की सुन्दरतम कृति  थी। फिर एक करिश्मे की मानिंद टेलीविज़न नमूदार हुआ। हालांकि पहाड़ों पर दूरदर्शन अपेक्षाकृत देर से आया था लेकिन भीमताल में अपट्रॉन टेलीविज़न की फैक्ट्री लगने के बाद टेलीविज़न बेहद सस्ते हो चले थे और पहाड़ के बाजारों में इनकी बाढ़ सी आ गई थी।  बीजों  के लिए सुखाने रखे  गए पीले कद्दुओं के साथ ,स्लेट की छतों पर एक और चीज़ जुड़ गई थी... टेलीविज़न का ऐंटेना।  हमारे घर के उस बाहर वाले कमरे में रेडियो के रैक के ठीक नीचे लोहे के स्टैंड पर एक टेलीविज़न लग चुका था ।अपनी चमक के कारण वो उस कमरे की सबसे आकर्षक वस्तु बन गया था । रेडियो अब थोड़ा बूढ़ा सा दिखने लगा था । जब भी उसके चेहरे पर उदासी दिखती,  मैं  उसका भद्दा कवर  उतारकर उसे अपने साथ आंगन की मुंडेर पर कुनकुनी धूप सेकने ले जाया करता। उन्हीं दिनों हमारे घर में दस बैंड का एक छोटा सा जापानी रेडियो आया जो कुछ जापानी पर्यटकों ने पिताजी की मेज़बानी से प्रभावित होकर उन्हें उपहार में दिया था। तब ऐसे रेडियो बाज़ार में नहीं थे। ये रेडियो बड़े भाईसाहब ने हथिया लिया और वो देर रात तक इस पर बी. बी.सी. सुना करते थे..
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने की गरज से। उधर लोग टेलीविज़न के दीवाने हो चले थे । रामायण और  महाभारत का दौर था ।लेकिन न जाने क्यों ये सीरियल मुझे आकर्षित नहीं करते थे।   ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा क्योंकि इनमें कहानी को दर्शक की कल्पनाशीलता के सहारे नहीं वरन प्रस्तुतकर्ता की नज़र  से दिखाया जाता।  मुझे रेडियो की आदत थी ......मेरी कल्पनाओं में रामायण और महाभारत के चरित्र लगातार परिवर्तनशील थे,वे हर बार पहले से बेहतर होते जाते, कुछ कल्पनातीत भी थे । टेलीविज़न पर जब वे बहुत साधारण किस्म के प्रतीत होते  तो मोह भंग होता, निराशा होती और इस वजह से मैं रविवार को राजू के साथ घूमने के लिए निकल पड़ता।जब लोग टेलीविज़न पर चिपके होते थे , हम चील चक्कर मोड़ , भवाली , आलूखेत या हनुमानगढ़ के पत्थरों पर  बैठकर बेसिर पैर की बातें किया करते थे ।इस बीच मेरे घर वालों को यक़ीन हो चला था कि मैं नैनीताल में रहते हुए नहीं पढ़ सकता इसलिए निर्णय लिया गया कि मैं बड़े भाई के पास मुंबई  में रहते हुए परीक्षाओं की तैयारी करूँगा।तब बड़े भाईसाहब की शादी नहीं हुई थी ।बैंक ने उन्हें  घाटकोपर में मकान दिया था। ऑफिस वर्ली में था ,लिहाजा सुबह जो साढ़े आठ पर निकलते तो शाम साढ़े सात -पौने आठ से पहले नहीं लौटते थे ।  मुम्बई जैसे महानगर में एकाकीपन अखरता ही नहीं बल्कि बहुत डराता भी था। छुट्टी के दिन भैजी मुझे  मुंबई घुमाने ले जाया करते । एक दिन फोर्ट में घूमते हुए उन्होंने एक रेडियो ख़रीदा लाल रंग के एक सुंदर 'टू इन वन' की शक़्ल में। मुझे अपने एकाकीपन का साथी मिल गया था।  दिन भर रेडियो खुला रहता ।मेरे लिए यह रेडियो की तीसरी पीढ़ी थी ।बेरोज़गारी के अवसाद भरे लंबे दौर के बाद नौकरी भी लगी तो रेडियो में । आकाशवाणी भोपाल जॉइन करने से  पहले मैंने  रेडियो स्टेशन नहीं देखा  था । श्रोता के लिए , जिस  केंद्र का वजूद , रेडियो के स्केल पर बमुश्किल एक मिलीमीटर भर होता है ,उसके पीछे इतनी बड़ी इमारत , इतने कर्मचारी, अधिकारी और तामझाम देखकर बहुत हैरानी हुई थी। लेकिन इसके बाद मुझे हमेशा याद रहा कि एक रेडियो स्टेशन के रूप में हमारी हैसियत एक मिलीमीटर भर है...अगर श्रोता को कुछ पसंद नहीं आया  तो वो सुई आगे घुमा देगा। रेडियो में आने के बाद, एक दिन  अचानक बचपन  के उस सपने की याद आई तो लगा कि  मेरे उस  सपने का शायद यही अर्थ रहा हो कि मेरी नियति में रेडियो में आना लिखा था। लेकिन कुछ ही देर बाद मैं इस  निर्णय पर पहुंच चुका था  कि निश्चित ही पिताजी के डर की वजह से वह सपना आता रहा होगा।
उन दिनों ,शहरों में रेडियो के श्रोता बहुत कम होने लगे थे। जब केबल टी. वी.  लोकप्रिय होते-होते गाँव देहात तक जा पहुंचा  तो लगा कि अब रेडियो की वापसी मुश्किल है। उन्हीं दिनों दिल्ली वाली बुआ के घर जाना हुआ। बुआ के बेटे बंटू से मेरी खूब बातें होती थी। उसने बताया कि आजकल दिल्ली वाले रेडियो के एक शो  का इंतज़ार बेसब्री से करते हैं। जब शाम को मैंने वो शो सुना तो रेडियो का तड़क-भड़क वाला ये नया स्वरुप मुझे भी बहुत पसंद आया । रेडियो का ऐसा बिंदास अंदाज़ पहले कभी नहीं सुना था । सरोजिनी नगर के घर घर से रेडियो की आवाज़ें उठ रहीं थी ,ख़ुशी इस बात की थी कि हमारी राजधानी में रेडियो के किसी शो का इंतज़ार हो रहा था । । दरअस्ल ये वही टाइम स्लॉट था जो  आकाशवाणी ने उन्हीं दिनों टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बेचा था। इस सफल प्रयोग के बाद ही निजी एफ़.एम. रेडियो की शुरुआत हुई थी और  कई शहरों में एफ़.एम. रेडियो स्टेशन कुकरमुत्तों की तरह उग आए थे।  भले ही दिल्ली में मुझे रेडियो का नया अंदाज़ मज़ेदार लगा हो लेकिन ये स्वरुप न सुकून पहुँचाने वाला था और न ही कल्पनाशीलता बढ़ाने वाला । ये रेडियो बहुत  बक- बक करता और बहुत जल्दी खीज पैदा करता था लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि जब शहरों में लोग रेडियो भूलने लगे थे, तब इसकी बकर- बकर ने ही लोगों को रेडियो सेट ख़रीदने के लिए मजबूर किया था। एफ़.एम. रेडियो  के लोकप्रिय होने पर  बाज़ार में तरह तरह के चीनी रेडियो सेट आ गए थे।चाय के और तमाम तरह के ठेलों पर लगने वाले जुगाड़  रेडियो का आविष्कार भी इसी दौर में हुआ ।आल इंडिया रेडियो के श्रोता भी अब लौटने लगे थे।रेडियो की लोकप्रियता बढ़ने के साथ- साथ उसका आवरण भी लगातार बदल रहा था,वह  परकाया प्रवेश करना सीख चुका था।  उसने डी. टी. एच. के रूप में टेलीविज़न,एफ़. एम. और ऍप्स के वेश में मोबाइल और इंटरनेट रेडियो के रूप में कम्प्यूटर  के भीतरअपनी पैठ बना ली थी । इस सब के बावजूद अभी हाल ही में  ' सारेगामा ' जब ने कारवां नाम का एक ' रेट्रो लुक ' वाला रेडियो निकाला तो उसने बिक्री के नए कीर्तिमान बना डाले। काश ऐसा रेडियो काशवाणी ने बनाया होता।
ये सब बातें मुझे तब याद आयी जब मैंने सुना कि आकाशवाणी अब अमेज़न अलेक्सा पर उपलब्ध हो गया है। रेडियो का आवरण भले ही बदलता रहे लेकिन इसकी आत्मा अमर है। ये एक ऐसा माध्यम है जो हमारे कहीं भीतर मौजूद है ।जब हम रेडियो पर कोई नाटक ,रूपक, कहानी या गीत सुनते हैं तो  हम भी उसका  एक क़िरदार होते हैं ...क़िरदार  बनना हमारी फितरत में शामिल है ।इसलिए तय है कि जब तक इंसान रूपी ये क़िरदार ज़िंदा है, रेडियो भी ज़िंदा रहेगा ।