यदि होता किन्नर नरेश मैं...




22 मई 2015, भोपाल उबल रहा है। मैं शाम 5 बजे शिमला पहुँच गया हूँ। गर्मी से बचने के लिए नहीं बल्कि अपनी अधूरी छूटी यात्रा पूरी करने के मक़सद से। कल सुबह मैं कल्पा के लिए रवानगी डालूँगा। कल्पा , जो किन्नौर जिला मुख्यालय से 11 किलोमीटर ऊपर 9,711 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है और शिमला से कोई 250 किलोमीटर दूर है।

पिछले साल इन्हीं दिनों ,लगभग इसी जगह से, हमें भूस्खलन के कारण लौटना पड़ा था। टापरी से कोई 4 किलोमीटर आगे भूस्खलन का वो दृश्य याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वो रास्ता अभी भी बंद है लेकिन अब उरनी गाँव से एक रास्ता बन गया है जो 22 किलोमीटर लम्बा है। आधी सड़क कच्ची है और मोड़ों पर बड़ी गाड़ियाँ एक बार में नहीं मुड़ पाती।

हमारे आगे आई.टी.बी. पी. का एक ट्रक रसद लेकर जा रहा है। ट्रक ड्राइवर हर मोड़ पर गाड़ी बैक कर दोबारा मोड़ता है। आगे निकलने के लिए जगह नहीं है। मुश्किल हालात में सीमावर्ती चौकियों तक रसद और जवान पहुँचाना कितना कठिन हो सकता है ,ये साफ़ साफ़ समझ में आ रहा है। हमारे समाचार चैनल चीनी ड्रैगन द्वारा भारत को चारों और से घेरने के सनसनीखेज़ समाचार जब स्टूडियो में ही बैठकर बनाते हैं तब वो भूल जाते हैं कि चीन अपनी सीमावर्ती सड़कों के लिए कितना गंभीर है। यह टेलीविज़न वीर कभी इन सड़कों पर आएं और हमारी तैयारियों पर भी रिपोर्टिंग करें तो शायद कुछ बेहतर हो। मैंने उत्तराखंड और उत्तर-पूर्व की सीमावर्ती सड़कों को भी देखा है और इस मामले में ड्रैगन, निश्चित रूप से ,हमसे बहुत बेहतर है.

टापरी से आगे निकलने के बाद रेतीली ज़मीन और दैत्याकार चट्टानों का मंज़र दिखने लगा है। सतलुज का पानी बहुत मटमैला है। स्थानीय लोग बताते हैं कि ड्रैगन द्वारा पारिछु डैम से बार बार पानी छोड़े जाने के कारण सतलुज में सिल्ट बढ़ता जा रहा है। अभी हाल ही में ,मैंने नदी जोड़ो परियोजना के विरुद्ध एक पर्यावरणविद का लेख पड़ा था, जिनका विचार है कि हिमनदियों को बाक़ी नदियों से जोड़ने पर सारी नदियां गाद से भर जाएंगी। सतलुज का ये रंग उनकी इस बात की पुष्टि करता प्रतीत होता है।

किन्नौर में एक मज़ेदार बात है। निर्जन ,रेतीले और भनायक मंज़र अचानक बदलते हैं। पहाड़ पर एक लम्बे मोड़ के बाद अचानक आपको हरी भरी घाटी या ऐसा पहाड़ मिल सकता है जहां दूधिया झरने होंगे और फलों से लदे पेड़।शाम ढल रही है .. दिन भर की यात्रा के बाद सामने रिकोंग पिओ देखकर थकान मिट जाती है। यहां से हमारी मंज़िल सिर्फ 11 किलोमीटर रह जाएगी। पहुँचते - पहुँचते शायद घुप्प अँधेरा हो जायेगा।

कल्पा में सुबह हो चुकी है।झीने बादल हैं इसलिए किन्नर कैलाश पर सूर्योदय के नाटकीय प्रकाश का दृश्य नसीब नहीं हुआ है। धीरे धीरे बादल छंटते हैं और किन्नर कैलाश दर्शन देते हैं। ॐ नमः शिवाय !

मैं सुबह सुबह घूमने निकल पड़ा हूँ। हिमालय पर अभी धूप नहीं है लेकिन कल्पा रौशनी में नहाया हुआ है। सेब और खुबानी के चिकने हरे पत्ते चमक रहे हैं।चोटियों की बर्फ़ पिघलकर इस गाँव के खेतों और सडकों के किनारे दूधिया नालों की शक़्ल में बह रही है।कूलों की कल कल , पक्षियों का कलरव और नीचे चिन्नी गांव के मंदिर से उठता 'ॐ मणि पद्मे हुँ ' का मंत्रोच्चार। इससे हसीन सुबह भला क्या होगी।
कल्पा से चिन्नी गाँव का दृश्य।



मैं टहलते टहलते गांव के दूसरे छोर तक आ गया हूँ जहां हर तरफ देवदार की खुशबू बसी है।


अब हिमालय पर धूप आ गई है। लौटते हैं। नाश्ते के बाद हम रोग्गे गांव जाएंगे जो यहां से 8 किलोमीटर दूर है। कल्पा से रोग्गे गाँव की सड़क बेहद खूबसूरत भी है और बेहद ख़ौफ़नाक भी।

रोग्गे गांव का रास्ता आपको शायद बहुत खूबसूरत लग रहा होगा क्यूंकि अभी आपको इस रास्ते के नीचे वाली खाई नहीं दिख रही है ..... चलिए कुछ दूर और चलें।

सिर्फ एक लम्बे मोड़ के बाद इतनी डरावनी सड़क। Full screen पर इस चित्र में एक सफ़ेद कार ढूंढिये।

इसे स्यूसाइड पॉइंट के नाम से जाना जाता है।यक़ीन जानिये जब मैं यहां पर चल रहा था तो ख़ुदबख़ुद पहाड़ की तरफ झुक गया था। ऐसा लगता था जैसे खाई अपनी तरफ खींच रही हो।

रोग्गे गाँव के सुभाष जी ने मुझे बताया कि यहां किसी ने आत्महत्या नहीं की बल्कि यहां पर ,1962 में , उनके एक शिक्षक की हत्या हुई थी जिन्हें एक व्यक्ति ने यहां से नीचे की ओर धक्का दे दिया था लेकिन अधिकतर लोग यही मानते रहे कि उन्होंने आत्महत्या की है।


जैसा कि मैंने पहले बताया कि किन्नौर में भयंकर चट्टानी और दुर्गम रास्तों के बाद अगले मोड़ पर कैसा दृश्य होगा ,इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वही हुआ। रोग्गे गांव की हरियाली ने मन मोह लिया। यहाँ सेब और चिलग़ोज़ा होता है ,साथ ही कई और पहाड़ी फल भी।


कल्पा वापस लौटकर अब हम यहां से लगभग ३ किलोमीटर नीचे बसे चिन्नी गांव की और जा रहे हैं।


हिमाचल के प्राचीन गाँव चिन्नी पहुँककर हमने सबसे पहले नारायण विष्णु मंदिर के दर्शन किये। सौभाग्य से यहाँ नारायण की यात्रा निकाली जा रही थी यात्रा की फोटो लेने की अनुमति नहीं थी। सिर्फ मंदिर की तस्वीरें ही ले पाया।किन्नौर में अधिकतर लोग हिन्दू और बौद्ध ,दोनों ही धर्मों में समान आस्था रखते हैं। दोनों ही धर्मों के मंदिर आस पास या एक ही परिसर में होते हैं. बौद्ध मंदिरों के प्रवेश द्वार पर जहां लकड़ी के ड्रैगन बने मिलते हैं वहीँ हिन्दू मंदिर के प्रवेश द्वार पर नाग नागिन दिखाई देते हैं।हिन्दू मंदिरों में भूत प्रेतों के लिए भी स्थान होता है .शायद यह वज्रयान का प्रभाव है।


किन्नौर के परंपरागत मंदिर लकड़ी और पत्थर से बने हैं। इनमें नक़्क़ाशीदार पैनलों के लिए देवदार और अखरोट की लकड़ी का प्रयोग होता है।


लकड़ी ,पत्थर और लोहे के अनूठे योग पर आधारित प्राचीन हिमाचली वास्तु ,देशज ज्ञान का एक बेहतरीन उदाहरण है. ऐसे मकान उच्च तीव्रता के भूकंप सहने में भी सक्षम हैं।


किन्नौर के सभी गाँवों में सांस्कृतिक और आर्धिक सम्पन्नता स्पष्ट रूप में दिखाई देती है ,लेकिन लोग बेहद सीधे और सरल हैं। यहां पेड़ों पर पैसा उगता है लेकिन फलों के इन पेड़ों की सेवा के लिए यह लोग बहुत परिश्रम करते हैं। इनका 'ग्रॉस इनकम' के बजाय 'ग्रॉस हैप्पीनेस 'में विश्वास है।

अधिकतर किन्नौरी मानते हैं कि उनके पास सिवाय अच्छी सड़कों के सब कुछ है ।

लगभग सभी किन्नौरी इस क्षेत्र में चलाई जा रही जल विद्युत परियोजनाओं को ही भूस्खलन का मूल कारण मानते हैं और उन्हें यह भी अंदेशा है कि अगर सब कुछ यूँ ही चलता रहा तो किन्नौर का वजूद ही मिट जाएगा. यह देख और सुन कर बहुत दुःख होता है।

चिन्नी के बाद अब हम सांगला जा रहे हैं , सामने का पहाड़ उधड़ गया है, ऊपर से रास्ते पर पत्थर आते रहते हैं .. जे.सी.बी लगी हैं।

सांगला पहुँचते पहुँचते शाम हो चली है, बादल भी घिर आये हैं ... चितकुल से निकली बास्पा नदी का पानी चमक रहा है.... कल सुबह चितकुल के लिए रवानगी डालेंगे।

सांगला से चितकुल की दूरी महज़ 23 किलोमीटर है किन्तु यहां पहुँचने में एक घंटे से अधिक का समय लग ही जाता है। यदि आप सुन्दर दृश्यों का नज़ारा लेने के लिए रुकते रहें तो न जाने कितना समय लगेगा .शिमला और नारकंडा में छोटे -छोटे सेब दिखने लगे हैं लेकिन हैरानी की बात है कि इस रास्ते पर पड़ने वाले सेब के बागानों में अभी बौर का ही दौर है। दरअस्ल चितकुल 11320 फ़ीट की ऊँचाई पर बसा है और कई बार अप्रैल तक यह बर्फ से ढका होता है.

और आख़िरकार मैं चितकुल पहुँच ही गया हूँ। अभी सुबह के आठ नहीं बजे हैं .. गाँव धूप में चमकने लगा है। कल रात भर यहां बूंदा बांदी होती रही , ज़मीन गीली है और हवा बहुत ठंडी। ऊपर चोटियों पर बर्फ की एक ताज़ा चादर साफ़ नज़र आ रही है।

लगभग 1200 लोगों की आबादी वाला यह अलसाया गाँव धीरे धीरे जाग रहा है। आसमान पूरी तरह साफ़ नहीं है। कभी भी बादल इन हसीन नज़ारों को ढाँप लेंगे.... यह सोचकर मैं गाँव देखने लम्बे डग भरता हूँ।एक किन्नौरी महिला दूध लेने निकल पड़ी है।

कुछ लोग मवेशी लेकर अपने खेतों की ओर जा रहे हैं।

चितकुल का मंदिर दिखते ही मैं सीधे अंदर आ गया हूँ। यह सिंह बड़ा जीवंत लगता है।

अब मैं गाँव से नीचे उतरकर बास्पा नदी के किनारे- किनारे चलूँगा। इस नदी का उदगम यहां से बहुत नज़दीक है , ठीक सामने वहाँ , जहां भारत और तिब्बत की सीमायें मिलती हैं। चितकुल इस सीमा पर भारत का आखिरी गांव है।

लगभग साढ़े ग्यारह हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर पैदल चलने पर थकान बहुत जल्द हो सकती है लेकिन सच ,मुझे थकान का ज़रा भी अहसास नहीं है। मैं उन बर्फीली चोटियों के और पास ,,, और पास जाना चाहता हूँ.

पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो चितकुल दूर नज़र आता है। मैं बास्पा नदी और चितकुल की उपजाऊ घाटी के बीचों बीच बनी पगडण्डी पर चल रहा हूँ। इन खेतों में उगने वाले आलुओं की मांग दुनिया भर में है और यह बहुत महंगे बिकते हैं।



बास्पा की पतली धार में दायीं ओर के बर्फीले पहाड़ों से निकला पानी इसी तरह मिलता जाता है और इसके पाट चौड़े होते जाते हैं । यदि आप गौर से देख सकें तो नदी के किनारे जो मवेशी दिख रहे हैं वो मुझसे कुछ पहले ही यहां की ओर निकले थे।


यह भोज वृक्ष है। बहुत ऊँचाई पर होता है।


भोज वृक्ष की छाल यूँ दिखती है। प्राचीन समय में इन्हीं भोज पत्रों पर न जाने कितने ग्रन्थ लिखे गए। आज यह पेड़ जलाऊ लकड़ी के रूप में प्रयुक्त होता है और इसका अस्तित्व संकट में है।


सुबह से लगभग 7 किलोमीटर पैदल चल चुका हूँ लेकिन रुकने की इच्छा ही नहीं होती।
और पास ... और पास ....


ठीक सामने बीचों बीच जो टीन की छतें चमक रही हैं वह आई. टी. बी.पी. की चौकी है और मैं यहां से आगे नहीं जा सकता। बहुत देर तक एक पत्थर पर बैठकर इस दृश्य को निहारता रहता हूँ।


लौटते वक़्त खेतों में हलचल बढ़ गई है।


चितकुल घाटी में धूप - छाँव का खेल शुरू हो गया है .. कुछ ही देर में यह बादल नीचे तक आ जायेंगे।

तो यह था चितकुल … मेरे सपनों में बसा गाँव। फोटो शेयरिंग कम्युनिटी का धन्यवाद जिसने मेरे दिल में यहां जाने की लौ लगाई। वस्तुतः यह फोटोलॉग भी मैंने इसी कम्युनिटी से प्रेरित होकर लिखा है ताकि आप भी मेरे साथ दुनिया के इस हसीन इलाक़े को देख और समझ पाएं। सच ,दुनिया बहुत खूबसूरत है।

मैं लौट रहा हूँ...... सांगला के आगे सड़क बंद हो चुकी है ..... मैं ज़रा भी भयभीत या परेशान नहीं हूँ क्यूंकि मुझे किन्नौर से प्यार हो गया है। मैं किन्नौरियों की इस आये दिन की तकलीफ़ को महसूस करना चाहता हूँ. अचानक मुझे रोग्गे गांव के सुभाष जी की बात याद आ गई है .. "इन बिजली वालों ने सुरंगें बना बना कर किन्नौर को खोखला कर दिया है ,यह किन्नौर को बर्बाद कर देंगे "...... मैं उदास हूँ..... लगभग एक घंटे बाद रास्ता खुल जाता है....... मैं एक बदशक्ल जँगल में दाखिल होने के लिए गाड़ी में चढ़ जाता हूँ।