एक बंगाली की मौत जिसे भुला नहीं पाता

एक बंगाली की मौत जिसे भुला नहीं पाता

सुबह सवेरे होटल से निकला तो कुछ टैक्सी ड्राइवर एक बंगाली बाबू की मौत की चर्चा कर रहे थे। कुछ देर उनसे बात की तो पता चला कि बाबू मोशाय  मेरी ही तरह कल देर शाम सांग्ला से कल्पा पहुंचे थे । उनकी तबियत सांग्ला में ही बिगड़नी शुरू हो गई थी। न जाने ऊंचाई की वजह से ऐसा हुआ या उन्हें पहले से ही कुछ समस्या थी,लेकिन पता लगा कि उन्हें सांस लेने में दिक़्क़त हो रही थी । उन्होंने लौटने के बजाय अपनी यात्रा जारी रखी...वैसे ये शायद  मजबूरी भी रही हो क्योंकि एक बार कल्पा का रुख करने के बाद ,हिमाचल के किसी बड़े शहर तक पहुंचने के लिए उन्हें रात भर यात्रा करनी पड़ती। यदि आप हिमाचल के इस खूबसूरत किन्तु दुर्गम क्षेत्र के बारे में न जानते हों तो बता दूं कि सांग्ला की समुद्र सतह से ऊंचाई 8500 फ़ीट से अधिक है और कल्पा की इससे 1000 फ़ीट ज़्यादा । शिमला से सड़क के रास्ते कल्पा या सांग्ला पहुँचने में लगभग 8 से 10  घंटे लग जाते हैं, वो भी तब, जब आप टैक्सी से यात्रा कर रहे हों ।
सुबह की सैर से पहले ये ख़बर सुनकर मन खिन्न होना स्वाभाविक था । होटल वापस लौटने की इच्छा हुई लेकिन फिर सोचा कि कमरे में उदासी और भी बढ़ सकती है । शारीरिक रूप से थकने पर  मानसिक थकान शायद थोड़ा कम हो जाय । पैदल चलते हुए मैं  सोचने लगा  कि यदि ये लोग पश्चिम बंगाल से हैं  और मृत देह वहाँ ले जायेंगे तो कम से कम दो दिन तो दिल्ली पहुँचने में ही लगेंगे । यदि दिल्ली से  हवाई जहाज़ से जा सके तो  ठीक अन्यथा.....। मन हुआ  कि उनके होटल का पता कर मदद के लिए पूछूं लेकिन फिर ख़याल आया कि
मैं  कुछ भी तो नहीं  जानता इस जगह के बारे में। ख़ुद को तस्सल्ली दी कि होटल वाले ने अब तक कुछ व्यवस्था तो कर दी होगी.....आसपास के थाने को भी किसी न किसी ने ख़बर दे ही दी होगी ....मदद न कर पाने के ख़याल से उदासी और भी बढ़ गई थी। अगर ये लोग तबियत बिगड़ते ही रामपुर- बुशहर निकल जाते तो शायद जान बच जाती....लेकिन होनी को कौन टाल सकता है । हिमालय पर अभी धूप  नहीं थी लेकिन कल्पा रौशनी में नहाया हुआ था।  सेब और खुबानी के चिकने हरे पत्ते चमक रहे थे।चोटियों की बर्फ़ पिघलकर  गाँव के खेतों और सड़कों के किनारे दूधिया नालों की शक़्ल  में बह  रही थी।कूलों की कल कल , पक्षियों  का कलरव और नीचे चिन्नी गांव के मंदिर से उठता 'ॐ मणि पद्मे हुँ ' का मंत्रोच्चार। इससे हसीन सुबह भला क्या होगी लेकिन मैं बाबू मोशाय की मौत की ख़बर के सदमे से  नहीं उबर पा रहा था। बंगालियों से जुड़ी मेरी स्मृतियां जाग उठी ....बंगाली लोग घूमने के बेहद शौक़ीन होते हैं। मैंने एक बंगाली से ही  एक बांग्ला कहावत सुनी थी " बंगालिर पायर तोले सोरसे" अर्थात बंगालियों के पाँव तले सरसों के गोल बीज लगे होते हैं और वो एक जगह नहीं टिकते। एक वक़्त उत्तराखंड आने वाले सबसे अधिक पर्यटक पश्चिम बंगाल के ही  हुआ करते थे । अधिकतर बंगाली दुर्गा पूजा के समय आते ,जब मेरे गृह नगर  नैनीताल में गुलाबी ठण्ड का मौसम हुआ करता था। हमारे लिए शरद ऋतु के वो दिन सर्दी के लिहाज से बहुत आरामदायक होते  थे लेकिन बंगाली लोग टोपी,मफलर और दस्ताने पहनकर ही मॉल रोड पर निकला करते ।  कश्मीरी शॉल बंगाली महिलाओं की ख़ास पसंद हुआ करती थी । कोई स्थानीय  व्यक्ति जब शुरूआती ठण्ड में ही गर्म  कपड़े पहने दिखता तो कोई न कोई उसे यह कहकर टोक  ही देता कि अभी तो बंगालियों ने भी शॉल ओढ़ना शुरू नहीं किया है। जिन दिनों हम इस बात पर हँसा करते थे तब हमें पश्चिम बंगाल की गर्मी और उमस का अंदाज़ा नहीं था।उन दिनों कई बंगाली डालडा के ख़ाली डिब्बों में बंगाली बीड़ियाँ भर कर यात्रा  करते तो कुछ स्टोव और होलडोल समेत चला करते थे.......।
लगभग सात किलोमीटर पैदल चलने के बाद मैं बेहद थक चुका था ...युक्ति काम आ गई थी ...मैं बाबू मोशाय की मौत भूलने लगा था। नाश्ते के बाद रोग्गे गांव घूमने और रास्ते में सुसाइड पॉइंट देखने की योजना थी सो मैं उसी अनुसार चल पड़ा।सुसाइड पॉइंट पहुंचे तो ऐसा लगा कि कोई मुझे खाई की ओर खींच रहा है,मैं अनजाने में पहाड़ की और झुककर चल रहा था ।बेहद डरावना मंज़र था ।लगभग एक दो किलोमीटर लंबी सीधी चट्टान और नीचे सतलुज नदी । कुछ छायाचित्र लेने के बाद  बमुश्किल सौ मीटर ही आगे बड़ा  था तो ऊपर पहाड़ से गिरता हुआ एक दूधिया झरना दिखा। अनुपम दृश्य था...मैंने  ड्राइवर को रुकने का इशारा किया।गाड़ी रुकते ही सड़क के नीचे नज़र पड़ी तो उस पानी की धार के किनारे एक चिता जल रही थी। उस चिता के पास सिर्फ तीन लोग थे ...एक महिला जो बंगाली नज़र आ रही थी, एक हिमाचली युवक जो टैक्सी ड्राइवर प्रतीत होता था और कानों पर मफलर बांधे  एक व्यक्ति ,जो हाथों  में  एक वीडियो कैमरा लिए  चिता का छायांकन कर रहा था। मेरा ड्राइवर बोला "ये बेचारे वही लोग हैं".... शायद उनके ड्राइवर को पहचान लिया था उसने ।अचानक वीडियो कैमरा लिए वो बंगाली चिता के  परिवेश को चित्रित करने के लिए कैमरा पैन करने लगा। पहले मुझे कुछ अजीब सा लगा लेकिन जल्द ही मेरी समझ में आ गया कि वो मृत व्यक्ति के सगे सम्बन्धियों के लिए इसे दर्ज कर  रहा है। उसके कैमरा पैन करते ही मेरी नज़र भी आस पास दौड़ गई। उत्तर में बर्फ से ढके सफ़ेद पहाड़ चमकदार धूप में नहा रहे  थे । पीछे एकदम नीला आकाश था। ऊपर  पहाड़ से गिरता  पानी चिता के पास से होता  हुआ  डरावनी खाई में विलीन हो रहा था। सड़क के दोनों और खड़े देवदार के पेड़ तेज़ हवा में साँय- साँय कर रहे थे। चिता की लकड़ियाँ चटख रही थीं और अग्नि की लपटें सब कुछ निगलने के लिए हुंकार भरने लगी थीं । वो तीनों लोग तेज़ आंच से बचने के लिए चिता से दूर होते जा रहे थे ......अचानक मेरे मष्तिष्क में  विचार आया   "क्या एक यात्रिक और प्रकृति प्रेमी के अंतिम संस्कार के लिए इससे बेहतर जगह हो सकती है!!"