रेडियो का परकाया प्रवेश सिद्धि मन्त्र


जब रेडियो को बंद करने के बाद भी  उससे आवाज़ें आनी बंद नहीं होती थीं तो मैं बुरी तरह डर जाया करता था। ऐसा लगता जैसे रेडियो भुतहा हो चला है और  रज़ाई के अंदर मुझे पसीने छूटने लगते । ये बात उन दिनों की है जब मैं नौ-दस साल का था। हमारे घर में फिलिप्स का एक बेहद खूबसूरत रेडियो हुआ करता  था ,मक्खनी रंग का । उसका आवरण न जाने किस पदार्थ का था । वो प्लास्टिक नहीं वरन  मज़बूत कपड़े जैसा कुछ था । इतने सुंदर रेडियो को  चमड़े  के काले और बदसूरत कवर से ढक कर रखने का  औचित्य मुझे कभी  समझ नहीं आया ।हमारे छोटे से घर के बाहर वाले कमरे में उसे रखने के लिए लकड़ी का एक रैक बना था। उस तक पहुंचने के लिए मुझे सोफे के हत्थे पर चढ़ना होता था। अमूमन रात को हिंदी समाचारों के समय पिताजी उसे खोला करते  और समाचार ख़त्म होते ही हमारे सोने का समय हो जाता था। जब पिताजी अच्छे मूड में होते तो हमें 'हवा महल' सुनने को मिलता। 'हवा महल' सुनते वक़्त जैसे कल्पनाओं को पंख लग जाते ।फिर रज़ाई में दुबककर मैं देर रात तक उन नाटकों  के बारे में सोचा करता। उन्हीं दिनों की बात है जब एक सपना   मुझे  लगातार परेशान  करता था....मैं सोफे के हत्थे पर चढ़कर रेडियो खोलता और जब उसे बंद करता तो उससे आवाज़ें आना जारी रहतीँ..फिर  लगता कि  पिताजी के ऑफिस से लौटने का समय हो चुका है, वो किसी भी क्षण आते ही होंगे... रेडियो का स्विच खोलकर दोबारा बंद करता  लेकिन आवाज़ें आना बंद नहीं होती...डर के मारे अजीब सी घबराहट होने लगती और  नींद खुल जाया करती थी । न जाने कितनी बार इस डरावने सपने के कारण मेरी नींदें उचटी होंगी ।कुछ बड़ा हुआ तो दिन के वक़्त पढ़ने का नाटक करते हुए मैं अक्सर रेडियो खोल लिया करता। मेरे लिए वह एक जानदार दोस्त था । शायद इसीलिए मरम्मत के दौरान जब पहली बार एक रेडियो खुला  देखा तो बेजान कल पुर्ज़े देखकर घोर निराशा हुई थी।कुछ बरसों के बाद रेडियो  ऐसा जादुई बक्सा बन गया जिस पर फ़िल्मी गाने आते ही हवा में रुमानियत घुलने लगती । अल्हड़ लड़कपन के उन दिनों कोई गीत  कानों में पड़ते ही हज़ारों तस्वीरें बनती बिगड़ती। उन दृश्यों में एक लड़की ज़रूर हुआ करती थी जिसकी शक़्ल हर गीत के साथ कुछ बदल जाया करती । मेरी वह प्रियतमा अस्ल  लड़की नहीं बल्कि मेरी कल्पना शक्ति की सुन्दरतम कृति  थी। फिर एक करिश्मे की मानिंद टेलीविज़न नमूदार हुआ। हालांकि पहाड़ों पर दूरदर्शन अपेक्षाकृत देर से आया था लेकिन भीमताल में अपट्रॉन टेलीविज़न की फैक्ट्री लगने के बाद टेलीविज़न बेहद सस्ते हो चले थे और पहाड़ के बाजारों में इनकी बाढ़ सी आ गई थी।  बीजों  के लिए सुखाने रखे  गए पीले कद्दुओं के साथ ,स्लेट की छतों पर एक और चीज़ जुड़ गई थी... टेलीविज़न का ऐंटेना।  हमारे घर के उस बाहर वाले कमरे में रेडियो के रैक के ठीक नीचे लोहे के स्टैंड पर एक टेलीविज़न लग चुका था ।अपनी चमक के कारण वो उस कमरे की सबसे आकर्षक वस्तु बन गया था । रेडियो अब थोड़ा बूढ़ा सा दिखने लगा था । जब भी उसके चेहरे पर उदासी दिखती,  मैं  उसका भद्दा कवर  उतारकर उसे अपने साथ आंगन की मुंडेर पर कुनकुनी धूप सेकने ले जाया करता। उन्हीं दिनों हमारे घर में दस बैंड का एक छोटा सा जापानी रेडियो आया जो कुछ जापानी पर्यटकों ने पिताजी की मेज़बानी से प्रभावित होकर उन्हें उपहार में दिया था। तब ऐसे रेडियो बाज़ार में नहीं थे। ये रेडियो बड़े भाईसाहब ने हथिया लिया और वो देर रात तक इस पर बी. बी.सी. सुना करते थे..
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने की गरज से। उधर लोग टेलीविज़न के दीवाने हो चले थे । रामायण और  महाभारत का दौर था ।लेकिन न जाने क्यों ये सीरियल मुझे आकर्षित नहीं करते थे।   ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा क्योंकि इनमें कहानी को दर्शक की कल्पनाशीलता के सहारे नहीं वरन प्रस्तुतकर्ता की नज़र  से दिखाया जाता।  मुझे रेडियो की आदत थी ......मेरी कल्पनाओं में रामायण और महाभारत के चरित्र लगातार परिवर्तनशील थे,वे हर बार पहले से बेहतर होते जाते, कुछ कल्पनातीत भी थे । टेलीविज़न पर जब वे बहुत साधारण किस्म के प्रतीत होते  तो मोह भंग होता, निराशा होती और इस वजह से मैं रविवार को राजू के साथ घूमने के लिए निकल पड़ता।जब लोग टेलीविज़न पर चिपके होते थे , हम चील चक्कर मोड़ , भवाली , आलूखेत या हनुमानगढ़ के पत्थरों पर  बैठकर बेसिर पैर की बातें किया करते थे ।इस बीच मेरे घर वालों को यक़ीन हो चला था कि मैं नैनीताल में रहते हुए नहीं पढ़ सकता इसलिए निर्णय लिया गया कि मैं बड़े भाई के पास मुंबई  में रहते हुए परीक्षाओं की तैयारी करूँगा।तब बड़े भाईसाहब की शादी नहीं हुई थी ।बैंक ने उन्हें  घाटकोपर में मकान दिया था। ऑफिस वर्ली में था ,लिहाजा सुबह जो साढ़े आठ पर निकलते तो शाम साढ़े सात -पौने आठ से पहले नहीं लौटते थे ।  मुम्बई जैसे महानगर में एकाकीपन अखरता ही नहीं बल्कि बहुत डराता भी था। छुट्टी के दिन भैजी मुझे  मुंबई घुमाने ले जाया करते । एक दिन फोर्ट में घूमते हुए उन्होंने एक रेडियो ख़रीदा लाल रंग के एक सुंदर 'टू इन वन' की शक़्ल में। मुझे अपने एकाकीपन का साथी मिल गया था।  दिन भर रेडियो खुला रहता ।मेरे लिए यह रेडियो की तीसरी पीढ़ी थी ।बेरोज़गारी के अवसाद भरे लंबे दौर के बाद नौकरी भी लगी तो रेडियो में । आकाशवाणी भोपाल जॉइन करने से  पहले मैंने  रेडियो स्टेशन नहीं देखा  था । श्रोता के लिए , जिस  केंद्र का वजूद , रेडियो के स्केल पर बमुश्किल एक मिलीमीटर भर होता है ,उसके पीछे इतनी बड़ी इमारत , इतने कर्मचारी, अधिकारी और तामझाम देखकर बहुत हैरानी हुई थी। लेकिन इसके बाद मुझे हमेशा याद रहा कि एक रेडियो स्टेशन के रूप में हमारी हैसियत एक मिलीमीटर भर है...अगर श्रोता को कुछ पसंद नहीं आया  तो वो सुई आगे घुमा देगा। रेडियो में आने के बाद, एक दिन  अचानक बचपन  के उस सपने की याद आई तो लगा कि  मेरे उस  सपने का शायद यही अर्थ रहा हो कि मेरी नियति में रेडियो में आना लिखा था। लेकिन कुछ ही देर बाद मैं इस  निर्णय पर पहुंच चुका था  कि निश्चित ही पिताजी के डर की वजह से वह सपना आता रहा होगा।
उन दिनों ,शहरों में रेडियो के श्रोता बहुत कम होने लगे थे। जब केबल टी. वी.  लोकप्रिय होते-होते गाँव देहात तक जा पहुंचा  तो लगा कि अब रेडियो की वापसी मुश्किल है। उन्हीं दिनों दिल्ली वाली बुआ के घर जाना हुआ। बुआ के बेटे बंटू से मेरी खूब बातें होती थी। उसने बताया कि आजकल दिल्ली वाले रेडियो के एक शो  का इंतज़ार बेसब्री से करते हैं। जब शाम को मैंने वो शो सुना तो रेडियो का तड़क-भड़क वाला ये नया स्वरुप मुझे भी बहुत पसंद आया । रेडियो का ऐसा बिंदास अंदाज़ पहले कभी नहीं सुना था । सरोजिनी नगर के घर घर से रेडियो की आवाज़ें उठ रहीं थी ,ख़ुशी इस बात की थी कि हमारी राजधानी में रेडियो के किसी शो का इंतज़ार हो रहा था । । दरअस्ल ये वही टाइम स्लॉट था जो  आकाशवाणी ने उन्हीं दिनों टाइम्स ऑफ़ इंडिया को बेचा था। इस सफल प्रयोग के बाद ही निजी एफ़.एम. रेडियो की शुरुआत हुई थी और  कई शहरों में एफ़.एम. रेडियो स्टेशन कुकरमुत्तों की तरह उग आए थे।  भले ही दिल्ली में मुझे रेडियो का नया अंदाज़ मज़ेदार लगा हो लेकिन ये स्वरुप न सुकून पहुँचाने वाला था और न ही कल्पनाशीलता बढ़ाने वाला । ये रेडियो बहुत  बक- बक करता और बहुत जल्दी खीज पैदा करता था लेकिन यह स्वीकार करना होगा कि जब शहरों में लोग रेडियो भूलने लगे थे, तब इसकी बकर- बकर ने ही लोगों को रेडियो सेट ख़रीदने के लिए मजबूर किया था। एफ़.एम. रेडियो  के लोकप्रिय होने पर  बाज़ार में तरह तरह के चीनी रेडियो सेट आ गए थे।चाय के और तमाम तरह के ठेलों पर लगने वाले जुगाड़  रेडियो का आविष्कार भी इसी दौर में हुआ ।आल इंडिया रेडियो के श्रोता भी अब लौटने लगे थे।रेडियो की लोकप्रियता बढ़ने के साथ- साथ उसका आवरण भी लगातार बदल रहा था,वह  परकाया प्रवेश करना सीख चुका था।  उसने डी. टी. एच. के रूप में टेलीविज़न,एफ़. एम. और ऍप्स के वेश में मोबाइल और इंटरनेट रेडियो के रूप में कम्प्यूटर  के भीतरअपनी पैठ बना ली थी । इस सब के बावजूद अभी हाल ही में  ' सारेगामा ' जब ने कारवां नाम का एक ' रेट्रो लुक ' वाला रेडियो निकाला तो उसने बिक्री के नए कीर्तिमान बना डाले। काश ऐसा रेडियो काशवाणी ने बनाया होता।
ये सब बातें मुझे तब याद आयी जब मैंने सुना कि आकाशवाणी अब अमेज़न अलेक्सा पर उपलब्ध हो गया है। रेडियो का आवरण भले ही बदलता रहे लेकिन इसकी आत्मा अमर है। ये एक ऐसा माध्यम है जो हमारे कहीं भीतर मौजूद है ।जब हम रेडियो पर कोई नाटक ,रूपक, कहानी या गीत सुनते हैं तो  हम भी उसका  एक क़िरदार होते हैं ...क़िरदार  बनना हमारी फितरत में शामिल है ।इसलिए तय है कि जब तक इंसान रूपी ये क़िरदार ज़िंदा है, रेडियो भी ज़िंदा रहेगा ।

एक बंगाली की मौत जिसे भुला नहीं पाता

एक बंगाली की मौत जिसे भुला नहीं पाता

सुबह सवेरे होटल से निकला तो कुछ टैक्सी ड्राइवर एक बंगाली बाबू की मौत की चर्चा कर रहे थे। कुछ देर उनसे बात की तो पता चला कि बाबू मोशाय  मेरी ही तरह कल देर शाम सांग्ला से कल्पा पहुंचे थे । उनकी तबियत सांग्ला में ही बिगड़नी शुरू हो गई थी। न जाने ऊंचाई की वजह से ऐसा हुआ या उन्हें पहले से ही कुछ समस्या थी,लेकिन पता लगा कि उन्हें सांस लेने में दिक़्क़त हो रही थी । उन्होंने लौटने के बजाय अपनी यात्रा जारी रखी...वैसे ये शायद  मजबूरी भी रही हो क्योंकि एक बार कल्पा का रुख करने के बाद ,हिमाचल के किसी बड़े शहर तक पहुंचने के लिए उन्हें रात भर यात्रा करनी पड़ती। यदि आप हिमाचल के इस खूबसूरत किन्तु दुर्गम क्षेत्र के बारे में न जानते हों तो बता दूं कि सांग्ला की समुद्र सतह से ऊंचाई 8500 फ़ीट से अधिक है और कल्पा की इससे 1000 फ़ीट ज़्यादा । शिमला से सड़क के रास्ते कल्पा या सांग्ला पहुँचने में लगभग 8 से 10  घंटे लग जाते हैं, वो भी तब, जब आप टैक्सी से यात्रा कर रहे हों ।
सुबह की सैर से पहले ये ख़बर सुनकर मन खिन्न होना स्वाभाविक था । होटल वापस लौटने की इच्छा हुई लेकिन फिर सोचा कि कमरे में उदासी और भी बढ़ सकती है । शारीरिक रूप से थकने पर  मानसिक थकान शायद थोड़ा कम हो जाय । पैदल चलते हुए मैं  सोचने लगा  कि यदि ये लोग पश्चिम बंगाल से हैं  और मृत देह वहाँ ले जायेंगे तो कम से कम दो दिन तो दिल्ली पहुँचने में ही लगेंगे । यदि दिल्ली से  हवाई जहाज़ से जा सके तो  ठीक अन्यथा.....। मन हुआ  कि उनके होटल का पता कर मदद के लिए पूछूं लेकिन फिर ख़याल आया कि
मैं  कुछ भी तो नहीं  जानता इस जगह के बारे में। ख़ुद को तस्सल्ली दी कि होटल वाले ने अब तक कुछ व्यवस्था तो कर दी होगी.....आसपास के थाने को भी किसी न किसी ने ख़बर दे ही दी होगी ....मदद न कर पाने के ख़याल से उदासी और भी बढ़ गई थी। अगर ये लोग तबियत बिगड़ते ही रामपुर- बुशहर निकल जाते तो शायद जान बच जाती....लेकिन होनी को कौन टाल सकता है । हिमालय पर अभी धूप  नहीं थी लेकिन कल्पा रौशनी में नहाया हुआ था।  सेब और खुबानी के चिकने हरे पत्ते चमक रहे थे।चोटियों की बर्फ़ पिघलकर  गाँव के खेतों और सड़कों के किनारे दूधिया नालों की शक़्ल  में बह  रही थी।कूलों की कल कल , पक्षियों  का कलरव और नीचे चिन्नी गांव के मंदिर से उठता 'ॐ मणि पद्मे हुँ ' का मंत्रोच्चार। इससे हसीन सुबह भला क्या होगी लेकिन मैं बाबू मोशाय की मौत की ख़बर के सदमे से  नहीं उबर पा रहा था। बंगालियों से जुड़ी मेरी स्मृतियां जाग उठी ....बंगाली लोग घूमने के बेहद शौक़ीन होते हैं। मैंने एक बंगाली से ही  एक बांग्ला कहावत सुनी थी " बंगालिर पायर तोले सोरसे" अर्थात बंगालियों के पाँव तले सरसों के गोल बीज लगे होते हैं और वो एक जगह नहीं टिकते। एक वक़्त उत्तराखंड आने वाले सबसे अधिक पर्यटक पश्चिम बंगाल के ही  हुआ करते थे । अधिकतर बंगाली दुर्गा पूजा के समय आते ,जब मेरे गृह नगर  नैनीताल में गुलाबी ठण्ड का मौसम हुआ करता था। हमारे लिए शरद ऋतु के वो दिन सर्दी के लिहाज से बहुत आरामदायक होते  थे लेकिन बंगाली लोग टोपी,मफलर और दस्ताने पहनकर ही मॉल रोड पर निकला करते ।  कश्मीरी शॉल बंगाली महिलाओं की ख़ास पसंद हुआ करती थी । कोई स्थानीय  व्यक्ति जब शुरूआती ठण्ड में ही गर्म  कपड़े पहने दिखता तो कोई न कोई उसे यह कहकर टोक  ही देता कि अभी तो बंगालियों ने भी शॉल ओढ़ना शुरू नहीं किया है। जिन दिनों हम इस बात पर हँसा करते थे तब हमें पश्चिम बंगाल की गर्मी और उमस का अंदाज़ा नहीं था।उन दिनों कई बंगाली डालडा के ख़ाली डिब्बों में बंगाली बीड़ियाँ भर कर यात्रा  करते तो कुछ स्टोव और होलडोल समेत चला करते थे.......।
लगभग सात किलोमीटर पैदल चलने के बाद मैं बेहद थक चुका था ...युक्ति काम आ गई थी ...मैं बाबू मोशाय की मौत भूलने लगा था। नाश्ते के बाद रोग्गे गांव घूमने और रास्ते में सुसाइड पॉइंट देखने की योजना थी सो मैं उसी अनुसार चल पड़ा।सुसाइड पॉइंट पहुंचे तो ऐसा लगा कि कोई मुझे खाई की ओर खींच रहा है,मैं अनजाने में पहाड़ की और झुककर चल रहा था ।बेहद डरावना मंज़र था ।लगभग एक दो किलोमीटर लंबी सीधी चट्टान और नीचे सतलुज नदी । कुछ छायाचित्र लेने के बाद  बमुश्किल सौ मीटर ही आगे बड़ा  था तो ऊपर पहाड़ से गिरता हुआ एक दूधिया झरना दिखा। अनुपम दृश्य था...मैंने  ड्राइवर को रुकने का इशारा किया।गाड़ी रुकते ही सड़क के नीचे नज़र पड़ी तो उस पानी की धार के किनारे एक चिता जल रही थी। उस चिता के पास सिर्फ तीन लोग थे ...एक महिला जो बंगाली नज़र आ रही थी, एक हिमाचली युवक जो टैक्सी ड्राइवर प्रतीत होता था और कानों पर मफलर बांधे  एक व्यक्ति ,जो हाथों  में  एक वीडियो कैमरा लिए  चिता का छायांकन कर रहा था। मेरा ड्राइवर बोला "ये बेचारे वही लोग हैं".... शायद उनके ड्राइवर को पहचान लिया था उसने ।अचानक वीडियो कैमरा लिए वो बंगाली चिता के  परिवेश को चित्रित करने के लिए कैमरा पैन करने लगा। पहले मुझे कुछ अजीब सा लगा लेकिन जल्द ही मेरी समझ में आ गया कि वो मृत व्यक्ति के सगे सम्बन्धियों के लिए इसे दर्ज कर  रहा है। उसके कैमरा पैन करते ही मेरी नज़र भी आस पास दौड़ गई। उत्तर में बर्फ से ढके सफ़ेद पहाड़ चमकदार धूप में नहा रहे  थे । पीछे एकदम नीला आकाश था। ऊपर  पहाड़ से गिरता  पानी चिता के पास से होता  हुआ  डरावनी खाई में विलीन हो रहा था। सड़क के दोनों और खड़े देवदार के पेड़ तेज़ हवा में साँय- साँय कर रहे थे। चिता की लकड़ियाँ चटख रही थीं और अग्नि की लपटें सब कुछ निगलने के लिए हुंकार भरने लगी थीं । वो तीनों लोग तेज़ आंच से बचने के लिए चिता से दूर होते जा रहे थे ......अचानक मेरे मष्तिष्क में  विचार आया   "क्या एक यात्रिक और प्रकृति प्रेमी के अंतिम संस्कार के लिए इससे बेहतर जगह हो सकती है!!"

स्पीति के रंग

जून 2016 . यह रिकांग पिओ का बस अड्डा है। चंडीगढ़ से हिमाचल परिवहन की बस में ,320 किलोमीटर का सफर ,बारह घंटों में तय कर, कल शाम लगभग 7 बजे यहां पहुंचा था।रात बिताने के लिए 400 रुपये में एक ठीक ठाक कमरा भी मिल गया था। यहां से आज बस में 192 किलोमीटर चल कर काज़ा पहुंचूंगा जो लाहौल स्पीति जिले के स्पीति संभाग का मुख्यालय है। सिर्फ 192 किलोमीटर के इस सफर में बारह घंटों से अधिक का समय भी लग सकता है.... यह सड़क है ही ऐसी।
  


रिकांग पिओ से काज़ा तक की इस सड़क की गिनती दुनिया की सबसे यातनाप्रद सड़कों में होती है। भूस्खलन के लिए कुख्यात ये सड़क स्पीतिवासियों के लिए साल के बारह महीनों खुली रहती है ..यह बात अलग है कि कब न जाने क्या हो जाए.....




बस में मेरे आगे एक हिमाचली परिवार है ,जिसने समवेत स्वरों में हनुमान चालीसा के पाठ के साथ यात्रा की शुरुआत की है। कुछ बौद्ध भिक्षु हैं ,कुछ विदेशी पर्यटक और स्थानीय लोगों के साथ -साथ कुछ बाहर के मज़दूर। मेरे बगल में एक हिमाचली लड़की बैठी है जो शिमला में पड़ती है। छुट्टियों में वह पहले रिकांग पिओ आकर किसी रिश्तेदार के घर रात बिताती है और अगली सुबह इसी बस से अपने घर हर्लिंग जाती है।




देर शाम 7 बजे काज़ा पहुंचा। यह काज़ा की पहली सुबह है। यहां पहाड़ों पर एक भी पेड़ नहीं दिखाई देता।कम ऊंचाई की घाटियों में सेब के बाग़ीचे हैं लेकिन पहाड़ पीली और लाल रेत के ढेर। कल चांगो से एक महिला सेब के सूखे चिप्स की बोरी लेकर चढ़ी थी। उसने हाथ भर भर कर सबको सूखे सेब खाने को दिए थे। उनमें ताज़े स्ट्रॉबेरी जैसी महक थी। मीठे इतने की किशमिश को मात दें. उसने बताया कि वह पो में इन्हे 80 रुपये किलो बेचेगी। यही सूखे सेब ,दिल्ली में,300 से 500 रुपये प्रति किलो बिकते हैं। वैसे वहाँ यह 5 रुपये किलो भी मिलें तब भी शायद ही कोई इस तरह लोगों में बांटे।




समुद्र की सतह से काज़ा की ऊंचाई 11,980 फ़ीट से 12,500 फ़ीट तक है। यह एक ठंडा रेगिस्तान है जहां वनस्पति के नाम पर बहुत बौनी कंटीली झाड़ियां भर होती हैं।




काज़ा में स्पीति नदी के किनारे कुछ पेड़ ज़रूर दीखते हैं पर सिर्फ पॉपुलर विलो। ऊंचाई और वनस्पति की कमी की वजह से ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम हो जाती है और थोड़ा चलने पर ही थकान होने लगती है।




यदि आप चाँद पर जाने की ख़्वाहिश रखते हैं तो बेहतर होगा कि आप स्पीति घूमने चले आएं । जानकार कहते हैं की चाँद और स्पीति की प्राकृतिक संरचनाएं बहुत मिलती जुलती हैं। मुझे चाँद के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं लेकिन शायद ऐसे दृश्यों के कारण ही लोग यह बात करते होंगे। बर्फ के धीरे धीरे गलने और तेज़ हवाओं के कटाव के कारण यहां ऐसी अदभुत संरचनाएं आकार लेती हैं।




यदि कभी चाँद पर इंसान बसा तो शायद ऐसा ही कुछ दृश्य होगा।




आज मैं पिन घाटी घूमने जा रहा हूँ। इस घाटी का आखिरी गाँव मुद ,काज़ा से 52 किलोमीटर दूर है। सिर्फ एक बस जाती है जो रात को पहुँचती है। सूमो का किराया 2500 रुपये है। कल यहां की एकलौती ट्रेवल एजेंसी के बाहर तीन बन्दे मिल गए थे जो शेयर टैक्सी ढून्ढ रहे थे...... चौथा मैं हो गया हूँ। हमने एक सूमो के लिए बात कर ली। ड्राइवर का नाम है चैरांग आंग दुई।




हम पिन नदी के बहाव के उलट चल रहे हैं और सामने अद्भुत दृश्य हैं।




पिन घाटी एक नेशनल पार्क भी है जो स्नो लेपर्ड और आइबेक्स के साथ साथ कई किस्म की जड़ी बूटियों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन हम लैंडस्केप देखने निकले हैं।




पिन नदी, पिन- पार्वती दर्रे से निकलती है और काज़ा से कुछ ही किलोमीटर पहले रंगती गांव में , स्पीति नदी में मिल जाती है।




...और हम मुद गांव पहुँच गए हैं।




यहां के पारम्परिक घरों की छतों में घास की एक मोटी परत लगाईं जाती है और उसे ऊपर से मिटटी से लीप दिया जाता है। ऐसे घर जाड़ों के दिनों में गर्म रहते हैं और दीवारों पर बर्फ का पानी भी नहीं रिसता।




सामने रेतीले पहाड़ पर वो बैंगनी रंग के फूल नहीं बल्कि वो मिटटी का रंग है.




यह मुद गांव के खेत हैं जहां अभी अभी मटर के पत्ते बाहर निकले हैं।




प्रकृति मुझ पर मेहरबान है और लौटते हुए पिन नदी के उस पार आइबेक्स भी दिख गए हैं।




कल पिन घाटी से काज़ा लौटने के पहले हम ढंकर की और मुड़ गए थे । लगभग 12800 फ़ीट की ऊँचाई पर बसे , सत्तर परिवारों के इस गांव में ,एक बहुत पुरानी मोनेस्ट्री है। यह मोनेस्ट्री तिब्बती बुद्धिज़्म के सबसे नए स्वरुप जेलपु विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है। सत्रहवीं शताब्दी में यह छोटा सा गांव स्पीति की राजधानी हुआ करता था।




आज हम बहुत ऊँचाई पर बसे गांव लांग्जा ,कोमिक और हिक्किम देखने निकल पड़े हैं।




14435 फ़ीट की ऊँचाई पर बसा ये गांव है लांग्जा। इतनी ऊँचाई पर सामान्यतः सर घूमने लगता है किन्तु मैं भाग्यशाली हूँ कि इस गांव के बीच से होते हुए लगभग २ किलोमीटर पैदल चलकर भी मैं जल्द ही सामान्य हो गया हूँ।




यह गांव फॉसिल्स के लिए विख्यात है...... उस युग के फॉसिल्स के लिए जब यहां समुद्र हुआ करता होगा।




लांग्जा गांव की चोटी पर बैठकर सोच रहा हूँ कि यहां जीवन कितना कठिन है.... फिर सोचता हूँ कि हम सुविधाभोगी शहरी, भौतिक सुविधाओं के दम पर क्या वाकई प्रसन्न हैं ? यहां जीवन इतना असुरक्षित है ..किन्तु क्या शहरों में हम अपने आप को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करते है ?...क्या हमें असुरक्षा की भावना नहीं घेरती ? यदि घेरती है तो क्या उसकी तीव्रता यहां के लोगों से कम है ?? क्या प्रसन्नता भौतिक सुविधाओं की मोहताज है ???...मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है।




ये काज़ा से कुछ ही दूरी पर स्थित रंगरिक गांव है। एक समय, यह स्पीति का सबसे बड़ा गांव हुआ करता था। आज मैं यह गांव देखने नहीं बल्कि कीह गोम्पा देखने निकला हूँ। कीह (Ki , Key ) मॉनेस्ट्री काज़ा से पंद्रह किलोमीटर दूर है और स्पीति की सबसे बड़ी मॉनेस्ट्री है।




वाह ! यह गोम्पा का पहला दृश्य है। सच कहूं तो इसी मॉनेस्ट्री का एक चित्र देख कर ही मेरे मन में स्पीति घूमने की इच्छा जागृत हुई थी। मैं जानता हूँ कि वैसा चित्र लेने के लिए मुझे मॉनेस्ट्री के ठीक पीछे उस रेतीले पहाड़ पर आधा- एक किलोमीटर पैदल चढ़ना होगा। 13668 फ़ीट की ऊँचाई पर ऐसा करना मुश्किल तो होगा लेकिन मैं प्रयास ज़रूर करूँगा




मोेनेस्ट्री के अंदर फोटो लेने अनुमति नहीं है। छत पर जाकर चित्र ले सकते हैं। जेलूग्पा पंथ के इस तिब्बती गोम्पा को विभिन्न आक्रमणकारियों ने कई बार क्षति पहुंचाई किन्तु हमारा सौभाग्य है कि हम आज भी इसे देख पा रहे हैं।




वज्रयान बुद्धिज़्म , तंत्र में भी विश्वास रखता है। लामा निंग्मा मुझे मॉनेस्ट्री घुमाकर मुझसे मेरे काम के बारे में पूछते हैं। उन्हें रेडियो में बहुत रूचि है । वे मुझे हर्बल चाय पिलाते हैं और बताते हैं कि ये चाय हाई अल्टीट्यूड पर होने वाली परेशानियों से बचाती है।मैं सोचता हूँ कि यदि यह सच हुआ तो गोम्पा का चित्र लेने के लिए पहाड़ पर चढ़ना मेरे लिए आसान हो जायेगा।




कीह गोम्पा का ये चित्र मेरे लिए हमेशा यादगार रहेगा...... इसके लिए मैं 13668 फ़ीट की ऊँचाई पर आधे किलोमीटर से अधिक चला हूँ.......मैं इस दृश्य की कल्पना यहां आने से पहले ही कर चुका हूँ..... ..एक और बात....यक़ीन कीजिये ... .. यह चित्र Incredible India के पोस्टर में छपे कीह के चित्र से बेहतर नहीं तो कम से कम उस की टक्कर का तो ज़रूर है.... ..मैं बेहद खुश हूँ और बहुत देर तक इस दृश्य को निहारता रहता हूँ।




स्पीति को अलविदा कहने की घड़ी आ चुकी है। जिस दिन मैं काज़ा पहुंचा था तभी रोहतांग और कुंजुम पास खुलने की ख़बर आई थी। काज़ा से मनाली का मार्ग छोटी गाड़ियों के लिए खोल दिया गया है। हिमाचल परिवहन की बसें अभीशुरू नहीं हुई हैं लेकिन दो सूमो रोज़ यहां से जाने लगी हैं।यह रास्ता सिर्फ चार या पांच महीने खुला रहता है। चेरांग आंग दुई ने बताया है कि 200 किलोमीटर के इस सफर में भी लगभग 12 घंटे लगेंगे। मेरे लिए ये नया रास्ता होगा ,यह सोचकर सूमो की एक सीट रिज़र्व करवा ली। एक सीट का किराया है 1000 रुपये। सुबह साढ़े छः बजे चलकर अभी हम लोसर में चाय के लिए रुके हैं।




बहुत चढ़ाई के बाद हम कुंजुम पास पहुँच गए हैं। ये कुंजुम देवी का मंदिर है जिनकी स्थानीय लोगों में बहुत मान्यता है। 'कुंजुम ला ' लाहौल स्पीति घाटी को कुल्लू घाटी से जोड़ता है और रोहतांग दर्रे से भी ऊंचा है।




कुंजुम पास से कुछ पहले तक हम स्पीति नदी के विपरीत चल रहे थे लेकिन इस दर्रे को पार करने के बाद अब हम चेनाब के साथ साथ चलेंगे। इसका उद्गम स्पीति घाटी के बारालाचा दर्रे से हुआ है।




छतरू में हम खाने के लिए रुके हैं। इस पुल के नीचे चेनाब बह रही है। बातल से छतरू तक 31 किलोमीटर का रास्ता हमने लगभग दो घंटे में तय किया...... हम सड़क के बजाय कभी नदी के किनारे- किनारे मिटटी पर चले, कभी पहाड़ों से गिरे बड़े पत्थरों की बीच , कभी पिघलती बर्फ के पानी पर और कभी बर्फ के ढेर के बीचों बीच... इससे सुन्दर हिमालयन सफारी नहीं हो सकती।




स्पीति घाटी पीछे छूट चुकी है, रोहतांग ला पहुँचते -पहुँचते साढ़े तीन बज रहे हैं।




स्थानीय लोग बताते हैं की रोहतांग पर इस साल अपेक्षाकृत कम बर्फ है।




मैं मनाली पहुँच चुका हूँ। इन दिनों मनाली की हालत ठीक वैसी है जो गर्मियों में रेलवे स्टेशन के वातानुकूलित प्रतीक्षालय की होती है... बेहद भीड़....बेहद शोर। सिर्फ इतने दिनों में मेरा रंग ताम्बई हो गया है और मैं स्पीतियन सा दिखने लगा हूँ। एक हफ्ते में ये रंग जा चुका होगा लेकिन मेरे मन का एक कोना स्पीति के रंग में ऐसा रंगा है कि ये रंग ताउम्र नहीं छूटेगा।


यदि होता किन्नर नरेश मैं...




22 मई 2015, भोपाल उबल रहा है। मैं शाम 5 बजे शिमला पहुँच गया हूँ। गर्मी से बचने के लिए नहीं बल्कि अपनी अधूरी छूटी यात्रा पूरी करने के मक़सद से। कल सुबह मैं कल्पा के लिए रवानगी डालूँगा। कल्पा , जो किन्नौर जिला मुख्यालय से 11 किलोमीटर ऊपर 9,711 फ़ीट की ऊंचाई पर स्थित है और शिमला से कोई 250 किलोमीटर दूर है।

पिछले साल इन्हीं दिनों ,लगभग इसी जगह से, हमें भूस्खलन के कारण लौटना पड़ा था। टापरी से कोई 4 किलोमीटर आगे भूस्खलन का वो दृश्य याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वो रास्ता अभी भी बंद है लेकिन अब उरनी गाँव से एक रास्ता बन गया है जो 22 किलोमीटर लम्बा है। आधी सड़क कच्ची है और मोड़ों पर बड़ी गाड़ियाँ एक बार में नहीं मुड़ पाती।

हमारे आगे आई.टी.बी. पी. का एक ट्रक रसद लेकर जा रहा है। ट्रक ड्राइवर हर मोड़ पर गाड़ी बैक कर दोबारा मोड़ता है। आगे निकलने के लिए जगह नहीं है। मुश्किल हालात में सीमावर्ती चौकियों तक रसद और जवान पहुँचाना कितना कठिन हो सकता है ,ये साफ़ साफ़ समझ में आ रहा है। हमारे समाचार चैनल चीनी ड्रैगन द्वारा भारत को चारों और से घेरने के सनसनीखेज़ समाचार जब स्टूडियो में ही बैठकर बनाते हैं तब वो भूल जाते हैं कि चीन अपनी सीमावर्ती सड़कों के लिए कितना गंभीर है। यह टेलीविज़न वीर कभी इन सड़कों पर आएं और हमारी तैयारियों पर भी रिपोर्टिंग करें तो शायद कुछ बेहतर हो। मैंने उत्तराखंड और उत्तर-पूर्व की सीमावर्ती सड़कों को भी देखा है और इस मामले में ड्रैगन, निश्चित रूप से ,हमसे बहुत बेहतर है.

टापरी से आगे निकलने के बाद रेतीली ज़मीन और दैत्याकार चट्टानों का मंज़र दिखने लगा है। सतलुज का पानी बहुत मटमैला है। स्थानीय लोग बताते हैं कि ड्रैगन द्वारा पारिछु डैम से बार बार पानी छोड़े जाने के कारण सतलुज में सिल्ट बढ़ता जा रहा है। अभी हाल ही में ,मैंने नदी जोड़ो परियोजना के विरुद्ध एक पर्यावरणविद का लेख पड़ा था, जिनका विचार है कि हिमनदियों को बाक़ी नदियों से जोड़ने पर सारी नदियां गाद से भर जाएंगी। सतलुज का ये रंग उनकी इस बात की पुष्टि करता प्रतीत होता है।

किन्नौर में एक मज़ेदार बात है। निर्जन ,रेतीले और भनायक मंज़र अचानक बदलते हैं। पहाड़ पर एक लम्बे मोड़ के बाद अचानक आपको हरी भरी घाटी या ऐसा पहाड़ मिल सकता है जहां दूधिया झरने होंगे और फलों से लदे पेड़।शाम ढल रही है .. दिन भर की यात्रा के बाद सामने रिकोंग पिओ देखकर थकान मिट जाती है। यहां से हमारी मंज़िल सिर्फ 11 किलोमीटर रह जाएगी। पहुँचते - पहुँचते शायद घुप्प अँधेरा हो जायेगा।

कल्पा में सुबह हो चुकी है।झीने बादल हैं इसलिए किन्नर कैलाश पर सूर्योदय के नाटकीय प्रकाश का दृश्य नसीब नहीं हुआ है। धीरे धीरे बादल छंटते हैं और किन्नर कैलाश दर्शन देते हैं। ॐ नमः शिवाय !

मैं सुबह सुबह घूमने निकल पड़ा हूँ। हिमालय पर अभी धूप नहीं है लेकिन कल्पा रौशनी में नहाया हुआ है। सेब और खुबानी के चिकने हरे पत्ते चमक रहे हैं।चोटियों की बर्फ़ पिघलकर इस गाँव के खेतों और सडकों के किनारे दूधिया नालों की शक़्ल में बह रही है।कूलों की कल कल , पक्षियों का कलरव और नीचे चिन्नी गांव के मंदिर से उठता 'ॐ मणि पद्मे हुँ ' का मंत्रोच्चार। इससे हसीन सुबह भला क्या होगी।
कल्पा से चिन्नी गाँव का दृश्य।



मैं टहलते टहलते गांव के दूसरे छोर तक आ गया हूँ जहां हर तरफ देवदार की खुशबू बसी है।


अब हिमालय पर धूप आ गई है। लौटते हैं। नाश्ते के बाद हम रोग्गे गांव जाएंगे जो यहां से 8 किलोमीटर दूर है। कल्पा से रोग्गे गाँव की सड़क बेहद खूबसूरत भी है और बेहद ख़ौफ़नाक भी।

रोग्गे गांव का रास्ता आपको शायद बहुत खूबसूरत लग रहा होगा क्यूंकि अभी आपको इस रास्ते के नीचे वाली खाई नहीं दिख रही है ..... चलिए कुछ दूर और चलें।

सिर्फ एक लम्बे मोड़ के बाद इतनी डरावनी सड़क। Full screen पर इस चित्र में एक सफ़ेद कार ढूंढिये।

इसे स्यूसाइड पॉइंट के नाम से जाना जाता है।यक़ीन जानिये जब मैं यहां पर चल रहा था तो ख़ुदबख़ुद पहाड़ की तरफ झुक गया था। ऐसा लगता था जैसे खाई अपनी तरफ खींच रही हो।

रोग्गे गाँव के सुभाष जी ने मुझे बताया कि यहां किसी ने आत्महत्या नहीं की बल्कि यहां पर ,1962 में , उनके एक शिक्षक की हत्या हुई थी जिन्हें एक व्यक्ति ने यहां से नीचे की ओर धक्का दे दिया था लेकिन अधिकतर लोग यही मानते रहे कि उन्होंने आत्महत्या की है।


जैसा कि मैंने पहले बताया कि किन्नौर में भयंकर चट्टानी और दुर्गम रास्तों के बाद अगले मोड़ पर कैसा दृश्य होगा ,इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। वही हुआ। रोग्गे गांव की हरियाली ने मन मोह लिया। यहाँ सेब और चिलग़ोज़ा होता है ,साथ ही कई और पहाड़ी फल भी।


कल्पा वापस लौटकर अब हम यहां से लगभग ३ किलोमीटर नीचे बसे चिन्नी गांव की और जा रहे हैं।


हिमाचल के प्राचीन गाँव चिन्नी पहुँककर हमने सबसे पहले नारायण विष्णु मंदिर के दर्शन किये। सौभाग्य से यहाँ नारायण की यात्रा निकाली जा रही थी यात्रा की फोटो लेने की अनुमति नहीं थी। सिर्फ मंदिर की तस्वीरें ही ले पाया।किन्नौर में अधिकतर लोग हिन्दू और बौद्ध ,दोनों ही धर्मों में समान आस्था रखते हैं। दोनों ही धर्मों के मंदिर आस पास या एक ही परिसर में होते हैं. बौद्ध मंदिरों के प्रवेश द्वार पर जहां लकड़ी के ड्रैगन बने मिलते हैं वहीँ हिन्दू मंदिर के प्रवेश द्वार पर नाग नागिन दिखाई देते हैं।हिन्दू मंदिरों में भूत प्रेतों के लिए भी स्थान होता है .शायद यह वज्रयान का प्रभाव है।


किन्नौर के परंपरागत मंदिर लकड़ी और पत्थर से बने हैं। इनमें नक़्क़ाशीदार पैनलों के लिए देवदार और अखरोट की लकड़ी का प्रयोग होता है।


लकड़ी ,पत्थर और लोहे के अनूठे योग पर आधारित प्राचीन हिमाचली वास्तु ,देशज ज्ञान का एक बेहतरीन उदाहरण है. ऐसे मकान उच्च तीव्रता के भूकंप सहने में भी सक्षम हैं।


किन्नौर के सभी गाँवों में सांस्कृतिक और आर्धिक सम्पन्नता स्पष्ट रूप में दिखाई देती है ,लेकिन लोग बेहद सीधे और सरल हैं। यहां पेड़ों पर पैसा उगता है लेकिन फलों के इन पेड़ों की सेवा के लिए यह लोग बहुत परिश्रम करते हैं। इनका 'ग्रॉस इनकम' के बजाय 'ग्रॉस हैप्पीनेस 'में विश्वास है।

अधिकतर किन्नौरी मानते हैं कि उनके पास सिवाय अच्छी सड़कों के सब कुछ है ।

लगभग सभी किन्नौरी इस क्षेत्र में चलाई जा रही जल विद्युत परियोजनाओं को ही भूस्खलन का मूल कारण मानते हैं और उन्हें यह भी अंदेशा है कि अगर सब कुछ यूँ ही चलता रहा तो किन्नौर का वजूद ही मिट जाएगा. यह देख और सुन कर बहुत दुःख होता है।

चिन्नी के बाद अब हम सांगला जा रहे हैं , सामने का पहाड़ उधड़ गया है, ऊपर से रास्ते पर पत्थर आते रहते हैं .. जे.सी.बी लगी हैं।

सांगला पहुँचते पहुँचते शाम हो चली है, बादल भी घिर आये हैं ... चितकुल से निकली बास्पा नदी का पानी चमक रहा है.... कल सुबह चितकुल के लिए रवानगी डालेंगे।

सांगला से चितकुल की दूरी महज़ 23 किलोमीटर है किन्तु यहां पहुँचने में एक घंटे से अधिक का समय लग ही जाता है। यदि आप सुन्दर दृश्यों का नज़ारा लेने के लिए रुकते रहें तो न जाने कितना समय लगेगा .शिमला और नारकंडा में छोटे -छोटे सेब दिखने लगे हैं लेकिन हैरानी की बात है कि इस रास्ते पर पड़ने वाले सेब के बागानों में अभी बौर का ही दौर है। दरअस्ल चितकुल 11320 फ़ीट की ऊँचाई पर बसा है और कई बार अप्रैल तक यह बर्फ से ढका होता है.

और आख़िरकार मैं चितकुल पहुँच ही गया हूँ। अभी सुबह के आठ नहीं बजे हैं .. गाँव धूप में चमकने लगा है। कल रात भर यहां बूंदा बांदी होती रही , ज़मीन गीली है और हवा बहुत ठंडी। ऊपर चोटियों पर बर्फ की एक ताज़ा चादर साफ़ नज़र आ रही है।

लगभग 1200 लोगों की आबादी वाला यह अलसाया गाँव धीरे धीरे जाग रहा है। आसमान पूरी तरह साफ़ नहीं है। कभी भी बादल इन हसीन नज़ारों को ढाँप लेंगे.... यह सोचकर मैं गाँव देखने लम्बे डग भरता हूँ।एक किन्नौरी महिला दूध लेने निकल पड़ी है।

कुछ लोग मवेशी लेकर अपने खेतों की ओर जा रहे हैं।

चितकुल का मंदिर दिखते ही मैं सीधे अंदर आ गया हूँ। यह सिंह बड़ा जीवंत लगता है।

अब मैं गाँव से नीचे उतरकर बास्पा नदी के किनारे- किनारे चलूँगा। इस नदी का उदगम यहां से बहुत नज़दीक है , ठीक सामने वहाँ , जहां भारत और तिब्बत की सीमायें मिलती हैं। चितकुल इस सीमा पर भारत का आखिरी गांव है।

लगभग साढ़े ग्यारह हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर पैदल चलने पर थकान बहुत जल्द हो सकती है लेकिन सच ,मुझे थकान का ज़रा भी अहसास नहीं है। मैं उन बर्फीली चोटियों के और पास ,,, और पास जाना चाहता हूँ.

पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो चितकुल दूर नज़र आता है। मैं बास्पा नदी और चितकुल की उपजाऊ घाटी के बीचों बीच बनी पगडण्डी पर चल रहा हूँ। इन खेतों में उगने वाले आलुओं की मांग दुनिया भर में है और यह बहुत महंगे बिकते हैं।



बास्पा की पतली धार में दायीं ओर के बर्फीले पहाड़ों से निकला पानी इसी तरह मिलता जाता है और इसके पाट चौड़े होते जाते हैं । यदि आप गौर से देख सकें तो नदी के किनारे जो मवेशी दिख रहे हैं वो मुझसे कुछ पहले ही यहां की ओर निकले थे।


यह भोज वृक्ष है। बहुत ऊँचाई पर होता है।


भोज वृक्ष की छाल यूँ दिखती है। प्राचीन समय में इन्हीं भोज पत्रों पर न जाने कितने ग्रन्थ लिखे गए। आज यह पेड़ जलाऊ लकड़ी के रूप में प्रयुक्त होता है और इसका अस्तित्व संकट में है।


सुबह से लगभग 7 किलोमीटर पैदल चल चुका हूँ लेकिन रुकने की इच्छा ही नहीं होती।
और पास ... और पास ....


ठीक सामने बीचों बीच जो टीन की छतें चमक रही हैं वह आई. टी. बी.पी. की चौकी है और मैं यहां से आगे नहीं जा सकता। बहुत देर तक एक पत्थर पर बैठकर इस दृश्य को निहारता रहता हूँ।


लौटते वक़्त खेतों में हलचल बढ़ गई है।


चितकुल घाटी में धूप - छाँव का खेल शुरू हो गया है .. कुछ ही देर में यह बादल नीचे तक आ जायेंगे।

तो यह था चितकुल … मेरे सपनों में बसा गाँव। फोटो शेयरिंग कम्युनिटी का धन्यवाद जिसने मेरे दिल में यहां जाने की लौ लगाई। वस्तुतः यह फोटोलॉग भी मैंने इसी कम्युनिटी से प्रेरित होकर लिखा है ताकि आप भी मेरे साथ दुनिया के इस हसीन इलाक़े को देख और समझ पाएं। सच ,दुनिया बहुत खूबसूरत है।

मैं लौट रहा हूँ...... सांगला के आगे सड़क बंद हो चुकी है ..... मैं ज़रा भी भयभीत या परेशान नहीं हूँ क्यूंकि मुझे किन्नौर से प्यार हो गया है। मैं किन्नौरियों की इस आये दिन की तकलीफ़ को महसूस करना चाहता हूँ. अचानक मुझे रोग्गे गांव के सुभाष जी की बात याद आ गई है .. "इन बिजली वालों ने सुरंगें बना बना कर किन्नौर को खोखला कर दिया है ,यह किन्नौर को बर्बाद कर देंगे "...... मैं उदास हूँ..... लगभग एक घंटे बाद रास्ता खुल जाता है....... मैं एक बदशक्ल जँगल में दाखिल होने के लिए गाड़ी में चढ़ जाता हूँ।