स्पीति के रंग

जून 2016 . यह रिकांग पिओ का बस अड्डा है। चंडीगढ़ से हिमाचल परिवहन की बस में ,320 किलोमीटर का सफर ,बारह घंटों में तय कर, कल शाम लगभग 7 बजे यहां पहुंचा था।रात बिताने के लिए 400 रुपये में एक ठीक ठाक कमरा भी मिल गया था। यहां से आज बस में 192 किलोमीटर चल कर काज़ा पहुंचूंगा जो लाहौल स्पीति जिले के स्पीति संभाग का मुख्यालय है। सिर्फ 192 किलोमीटर के इस सफर में बारह घंटों से अधिक का समय भी लग सकता है.... यह सड़क है ही ऐसी।
  


रिकांग पिओ से काज़ा तक की इस सड़क की गिनती दुनिया की सबसे यातनाप्रद सड़कों में होती है। भूस्खलन के लिए कुख्यात ये सड़क स्पीतिवासियों के लिए साल के बारह महीनों खुली रहती है ..यह बात अलग है कि कब न जाने क्या हो जाए.....




बस में मेरे आगे एक हिमाचली परिवार है ,जिसने समवेत स्वरों में हनुमान चालीसा के पाठ के साथ यात्रा की शुरुआत की है। कुछ बौद्ध भिक्षु हैं ,कुछ विदेशी पर्यटक और स्थानीय लोगों के साथ -साथ कुछ बाहर के मज़दूर। मेरे बगल में एक हिमाचली लड़की बैठी है जो शिमला में पड़ती है। छुट्टियों में वह पहले रिकांग पिओ आकर किसी रिश्तेदार के घर रात बिताती है और अगली सुबह इसी बस से अपने घर हर्लिंग जाती है।




देर शाम 7 बजे काज़ा पहुंचा। यह काज़ा की पहली सुबह है। यहां पहाड़ों पर एक भी पेड़ नहीं दिखाई देता।कम ऊंचाई की घाटियों में सेब के बाग़ीचे हैं लेकिन पहाड़ पीली और लाल रेत के ढेर। कल चांगो से एक महिला सेब के सूखे चिप्स की बोरी लेकर चढ़ी थी। उसने हाथ भर भर कर सबको सूखे सेब खाने को दिए थे। उनमें ताज़े स्ट्रॉबेरी जैसी महक थी। मीठे इतने की किशमिश को मात दें. उसने बताया कि वह पो में इन्हे 80 रुपये किलो बेचेगी। यही सूखे सेब ,दिल्ली में,300 से 500 रुपये प्रति किलो बिकते हैं। वैसे वहाँ यह 5 रुपये किलो भी मिलें तब भी शायद ही कोई इस तरह लोगों में बांटे।




समुद्र की सतह से काज़ा की ऊंचाई 11,980 फ़ीट से 12,500 फ़ीट तक है। यह एक ठंडा रेगिस्तान है जहां वनस्पति के नाम पर बहुत बौनी कंटीली झाड़ियां भर होती हैं।




काज़ा में स्पीति नदी के किनारे कुछ पेड़ ज़रूर दीखते हैं पर सिर्फ पॉपुलर विलो। ऊंचाई और वनस्पति की कमी की वजह से ऑक्सीजन की मात्रा बहुत कम हो जाती है और थोड़ा चलने पर ही थकान होने लगती है।




यदि आप चाँद पर जाने की ख़्वाहिश रखते हैं तो बेहतर होगा कि आप स्पीति घूमने चले आएं । जानकार कहते हैं की चाँद और स्पीति की प्राकृतिक संरचनाएं बहुत मिलती जुलती हैं। मुझे चाँद के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं लेकिन शायद ऐसे दृश्यों के कारण ही लोग यह बात करते होंगे। बर्फ के धीरे धीरे गलने और तेज़ हवाओं के कटाव के कारण यहां ऐसी अदभुत संरचनाएं आकार लेती हैं।




यदि कभी चाँद पर इंसान बसा तो शायद ऐसा ही कुछ दृश्य होगा।




आज मैं पिन घाटी घूमने जा रहा हूँ। इस घाटी का आखिरी गाँव मुद ,काज़ा से 52 किलोमीटर दूर है। सिर्फ एक बस जाती है जो रात को पहुँचती है। सूमो का किराया 2500 रुपये है। कल यहां की एकलौती ट्रेवल एजेंसी के बाहर तीन बन्दे मिल गए थे जो शेयर टैक्सी ढून्ढ रहे थे...... चौथा मैं हो गया हूँ। हमने एक सूमो के लिए बात कर ली। ड्राइवर का नाम है चैरांग आंग दुई।




हम पिन नदी के बहाव के उलट चल रहे हैं और सामने अद्भुत दृश्य हैं।




पिन घाटी एक नेशनल पार्क भी है जो स्नो लेपर्ड और आइबेक्स के साथ साथ कई किस्म की जड़ी बूटियों के लिए प्रसिद्ध है। लेकिन हम लैंडस्केप देखने निकले हैं।




पिन नदी, पिन- पार्वती दर्रे से निकलती है और काज़ा से कुछ ही किलोमीटर पहले रंगती गांव में , स्पीति नदी में मिल जाती है।




...और हम मुद गांव पहुँच गए हैं।




यहां के पारम्परिक घरों की छतों में घास की एक मोटी परत लगाईं जाती है और उसे ऊपर से मिटटी से लीप दिया जाता है। ऐसे घर जाड़ों के दिनों में गर्म रहते हैं और दीवारों पर बर्फ का पानी भी नहीं रिसता।




सामने रेतीले पहाड़ पर वो बैंगनी रंग के फूल नहीं बल्कि वो मिटटी का रंग है.




यह मुद गांव के खेत हैं जहां अभी अभी मटर के पत्ते बाहर निकले हैं।




प्रकृति मुझ पर मेहरबान है और लौटते हुए पिन नदी के उस पार आइबेक्स भी दिख गए हैं।




कल पिन घाटी से काज़ा लौटने के पहले हम ढंकर की और मुड़ गए थे । लगभग 12800 फ़ीट की ऊँचाई पर बसे , सत्तर परिवारों के इस गांव में ,एक बहुत पुरानी मोनेस्ट्री है। यह मोनेस्ट्री तिब्बती बुद्धिज़्म के सबसे नए स्वरुप जेलपु विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है। सत्रहवीं शताब्दी में यह छोटा सा गांव स्पीति की राजधानी हुआ करता था।




आज हम बहुत ऊँचाई पर बसे गांव लांग्जा ,कोमिक और हिक्किम देखने निकल पड़े हैं।




14435 फ़ीट की ऊँचाई पर बसा ये गांव है लांग्जा। इतनी ऊँचाई पर सामान्यतः सर घूमने लगता है किन्तु मैं भाग्यशाली हूँ कि इस गांव के बीच से होते हुए लगभग २ किलोमीटर पैदल चलकर भी मैं जल्द ही सामान्य हो गया हूँ।




यह गांव फॉसिल्स के लिए विख्यात है...... उस युग के फॉसिल्स के लिए जब यहां समुद्र हुआ करता होगा।




लांग्जा गांव की चोटी पर बैठकर सोच रहा हूँ कि यहां जीवन कितना कठिन है.... फिर सोचता हूँ कि हम सुविधाभोगी शहरी, भौतिक सुविधाओं के दम पर क्या वाकई प्रसन्न हैं ? यहां जीवन इतना असुरक्षित है ..किन्तु क्या शहरों में हम अपने आप को पूरी तरह सुरक्षित महसूस करते है ?...क्या हमें असुरक्षा की भावना नहीं घेरती ? यदि घेरती है तो क्या उसकी तीव्रता यहां के लोगों से कम है ?? क्या प्रसन्नता भौतिक सुविधाओं की मोहताज है ???...मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है।




ये काज़ा से कुछ ही दूरी पर स्थित रंगरिक गांव है। एक समय, यह स्पीति का सबसे बड़ा गांव हुआ करता था। आज मैं यह गांव देखने नहीं बल्कि कीह गोम्पा देखने निकला हूँ। कीह (Ki , Key ) मॉनेस्ट्री काज़ा से पंद्रह किलोमीटर दूर है और स्पीति की सबसे बड़ी मॉनेस्ट्री है।




वाह ! यह गोम्पा का पहला दृश्य है। सच कहूं तो इसी मॉनेस्ट्री का एक चित्र देख कर ही मेरे मन में स्पीति घूमने की इच्छा जागृत हुई थी। मैं जानता हूँ कि वैसा चित्र लेने के लिए मुझे मॉनेस्ट्री के ठीक पीछे उस रेतीले पहाड़ पर आधा- एक किलोमीटर पैदल चढ़ना होगा। 13668 फ़ीट की ऊँचाई पर ऐसा करना मुश्किल तो होगा लेकिन मैं प्रयास ज़रूर करूँगा




मोेनेस्ट्री के अंदर फोटो लेने अनुमति नहीं है। छत पर जाकर चित्र ले सकते हैं। जेलूग्पा पंथ के इस तिब्बती गोम्पा को विभिन्न आक्रमणकारियों ने कई बार क्षति पहुंचाई किन्तु हमारा सौभाग्य है कि हम आज भी इसे देख पा रहे हैं।




वज्रयान बुद्धिज़्म , तंत्र में भी विश्वास रखता है। लामा निंग्मा मुझे मॉनेस्ट्री घुमाकर मुझसे मेरे काम के बारे में पूछते हैं। उन्हें रेडियो में बहुत रूचि है । वे मुझे हर्बल चाय पिलाते हैं और बताते हैं कि ये चाय हाई अल्टीट्यूड पर होने वाली परेशानियों से बचाती है।मैं सोचता हूँ कि यदि यह सच हुआ तो गोम्पा का चित्र लेने के लिए पहाड़ पर चढ़ना मेरे लिए आसान हो जायेगा।




कीह गोम्पा का ये चित्र मेरे लिए हमेशा यादगार रहेगा...... इसके लिए मैं 13668 फ़ीट की ऊँचाई पर आधे किलोमीटर से अधिक चला हूँ.......मैं इस दृश्य की कल्पना यहां आने से पहले ही कर चुका हूँ..... ..एक और बात....यक़ीन कीजिये ... .. यह चित्र Incredible India के पोस्टर में छपे कीह के चित्र से बेहतर नहीं तो कम से कम उस की टक्कर का तो ज़रूर है.... ..मैं बेहद खुश हूँ और बहुत देर तक इस दृश्य को निहारता रहता हूँ।




स्पीति को अलविदा कहने की घड़ी आ चुकी है। जिस दिन मैं काज़ा पहुंचा था तभी रोहतांग और कुंजुम पास खुलने की ख़बर आई थी। काज़ा से मनाली का मार्ग छोटी गाड़ियों के लिए खोल दिया गया है। हिमाचल परिवहन की बसें अभीशुरू नहीं हुई हैं लेकिन दो सूमो रोज़ यहां से जाने लगी हैं।यह रास्ता सिर्फ चार या पांच महीने खुला रहता है। चेरांग आंग दुई ने बताया है कि 200 किलोमीटर के इस सफर में भी लगभग 12 घंटे लगेंगे। मेरे लिए ये नया रास्ता होगा ,यह सोचकर सूमो की एक सीट रिज़र्व करवा ली। एक सीट का किराया है 1000 रुपये। सुबह साढ़े छः बजे चलकर अभी हम लोसर में चाय के लिए रुके हैं।




बहुत चढ़ाई के बाद हम कुंजुम पास पहुँच गए हैं। ये कुंजुम देवी का मंदिर है जिनकी स्थानीय लोगों में बहुत मान्यता है। 'कुंजुम ला ' लाहौल स्पीति घाटी को कुल्लू घाटी से जोड़ता है और रोहतांग दर्रे से भी ऊंचा है।




कुंजुम पास से कुछ पहले तक हम स्पीति नदी के विपरीत चल रहे थे लेकिन इस दर्रे को पार करने के बाद अब हम चेनाब के साथ साथ चलेंगे। इसका उद्गम स्पीति घाटी के बारालाचा दर्रे से हुआ है।




छतरू में हम खाने के लिए रुके हैं। इस पुल के नीचे चेनाब बह रही है। बातल से छतरू तक 31 किलोमीटर का रास्ता हमने लगभग दो घंटे में तय किया...... हम सड़क के बजाय कभी नदी के किनारे- किनारे मिटटी पर चले, कभी पहाड़ों से गिरे बड़े पत्थरों की बीच , कभी पिघलती बर्फ के पानी पर और कभी बर्फ के ढेर के बीचों बीच... इससे सुन्दर हिमालयन सफारी नहीं हो सकती।




स्पीति घाटी पीछे छूट चुकी है, रोहतांग ला पहुँचते -पहुँचते साढ़े तीन बज रहे हैं।




स्थानीय लोग बताते हैं की रोहतांग पर इस साल अपेक्षाकृत कम बर्फ है।




मैं मनाली पहुँच चुका हूँ। इन दिनों मनाली की हालत ठीक वैसी है जो गर्मियों में रेलवे स्टेशन के वातानुकूलित प्रतीक्षालय की होती है... बेहद भीड़....बेहद शोर। सिर्फ इतने दिनों में मेरा रंग ताम्बई हो गया है और मैं स्पीतियन सा दिखने लगा हूँ। एक हफ्ते में ये रंग जा चुका होगा लेकिन मेरे मन का एक कोना स्पीति के रंग में ऐसा रंगा है कि ये रंग ताउम्र नहीं छूटेगा।