अरे ख़ाँ नाम में क्या धरा हे

''कों ख़ाँ मुन्ना केसे हो ?'' भोपाल के शुरूआती दिनों में यह सवाल पूरे पाँच दिन तक मेरे लिए पहेली बना रहा । जब भी हसन भाई सामने पड़ते यह सवाल उछाल देते । हसन भाई प्रोडक्शन एसिस्टैंट थे । हर वक़्त उनके मुँह में पान रहता और कुर्ते पर चूने और कत्थे के दाग़ । उनके पुराने साथी उन्हें 'छम्मन मियाँ' कहा करते थे । हसन भाई रेडियो की पुरानी मशीनों पर डबिंग करने में सिध्दहस्त थे और उन्हें ऐसा करते हुए देखना एक मज़ेदार अनुभव होता । उनकी एक अंगुली पर हमेशा गीला चूना लगा होता जिसे वह थोड़ी-थोड़ी देर में खाते रहते । डबिंग करते समय वह अंगुली को मशीन पर लगने से बचाए रखते । 'कैसे' को 'केसे' कहना समझ में आने लगा था लेकिन यह 'ख़ाँ मुन्ना' क्या बला है, यह मेरी समझ के परे था । पाँचवे दिन शाम की डयूटी पर रेडियो स्टेशन पहुँचा । मैं अपनी कुर्सी पर बैठा ही था कि सीनियर अनाउन्सर मन्नान भाई ने 'डयूटी रूम' में प्रवेश किया और अपनी मोटी आवाज़ में सवाल दागा, ''ऑ ख़ाँ क्या चल रिया ?'' मेरा दिमाग़ बिजली से भी तेज़ गति से दौड़ा और सुबह चाय के खोखे पर एक फेंकू भोपाली की बात ताज़ा हो गई जो किसी ग़रीब को दिलासा दे रहा था, ''अरे ख़ाँ उसकी तो एसी की तेसी कर देंगे हम । तुम फ़िकर मत करो ख़ाँ ..... उसकी भेन का ....... ।'' मैं समझ गया कि ख़ाँ की पदवी देकर मुझे भोपालियों की जमात में शामिल कर लिया गया है । ख़ुशी की बात यह थी कि इसमे मेरा धर्म आड़े नहीं आया । चूँकि मेरी कद काठी छोटी है और चेहरे पर कुछ मासूमियत अब भी बाक़ी है इसलिए हसन भाई ने ख़ाँ के साथ प्यार से 'मुन्ना' भी जोड़ दिया है । अब नाज़ुक ख़ान या शहज़ादे का हाल पूछा तो सवाल बना - 'कों ख़ाँ मुन्ना केसे हो ?' उसी रात पौने नौ बजे जब दिल्ली के समाचार रिले होने लगे तो मन्नान भाई के साथ खाना खाते हुए पता चला कि भोपाल में अफ़गानिस्तान से बहुत से पठान आकर बस गए थे । एक दूसरे को 'ख़ाँ' कहने की परम्परा शायद इन्ही से शुरू हुई होगी ।
भोपाल में मेरा छठा दिन था; एक जीनियस व्यक्ति से मुलाकात हुई - लोकेन्द्र ठक्कर से । उन्होने घर आने का आग्रह किया । मैंने उनसे पूछा कहाँ रहते हैं और कैसे आना होगा तो बोले, ''पॉलीटैक्नीक चौराहे से रंगमहल के लिए 'भट
सुअर' पकड़ लेना और फिर थोड़ा आगे चलकर न्यू मार्केट से दस नम्बर वाली बस में चढ़ जाना । 'दो नम्बर' पर उतरकर 'दो नम्बर मार्केट' मिलेगा उसके पीछे फ़लाँ मकान नम्बर ..... ।'' इस पते में मेरे लिए दो पहेलियाँ थी - 'भट सुअर' और 'दो नम्बर' । सातवें दिन सुबह की डयूटी ख़त्म करने के बाद मैं इन पहेलियों को सुलझाने के लिए चल पड़ा । पॉलीटैक्नीक चौराहे पर पहुँचकर रास्ते के किनारे खड़े एक भोपाली से डरते-डरते पूछा, ''भाईजान ये भट ..... कहाँ मिलेंगे (सुअर नहीं कह पाया) ..... ?'' उसने तपाक से बाई ओर इशारा करते हुए कहा, ''ये क्या चला आ रिया हे सामने से ! '' बाईं तरफ से भड़भड़ाता हुआ एक टैम्पो नमूदार हुआ - बजाज का लम्बी थूथन वाला पुराना टैम्पो । मैं ऐसी गाड़ियाँ भोपाल रेलवे स्टेशन के पास देख चुका था और उसके पहले लखनऊ से लगे ग्रामीण इलाकों में । आज मैं इन्हे अलग नज़र से देख रहा था । शायद लम्बी थूथन के कारण ही इसे सुअर कहते होंगे यह सोचते हुए मैं टैम्पो में चढ़ गया । रंगमहल पहुँचा तो वहाँ ऐसे कई टैम्पो कतार से खड़े थे । आगे वाला टैम्पो लोगों से खचाखच भरा हुआ था और उसकी थूथन पर लगे बोनट को खोलकर एक रस्सीनुमा 'पुली' से उसे 'स्टार्ट' करने की कोशिश की जा रही थी । तार खींचते ही वह 'भट-भट-भट' करता और फिर बन्द हो जाता । इससे पहले इंजन स्टार्ट होता मैं इसके नामकरण का विज्ञान समझ चुका था । बस स्टॉप पर दस नम्बर जाने वाली बस लगी थी । मेरे चढ़ते ही बाहर खड़ा एक पतला सा लड़का भी मेरे पीछे-पीछे चढ़ा और ज़ोर से चिल्लाया - ''जान दो..... जान दो..... सनन जान दो ..... ।'' कुछ क्षण के लिए मैं डर गया
। मैंने सोचा यह किसकी जान की बात कर रहा है ? फिर मुझे याद आया कि भोपाल में शब्दों में प्रयुक्त मात्राओं को घटा बढ़ाकर अर्थ निकालना चाहिए । अब मुझे यक़ीन हो गया था कि इसका आशय 'जाने दो' से ही है । मैंने टिकट लिया, 'दो नम्बर' पर उतारने को कहा और निश्चिंत होकर बैठ गया । बस की रफ्तार के साथ मेरी सोच ने भी तेज़ी पकड़ ली । मैं सोचने लगा कि मुझ पर भोपाली ज़बान समझने का यह कैसा जुनून सवार हो गया है । इस वक़्त मेरी प्राथमिकता हिन्दी और ख़ासकर उर्दू का शब्दज्ञान बढ़ाने की होनी चाहिए । रेडियो में भाषा की शुध्दता पर विषेष ध्यान दिया जाता है और रेडियो में यह मेरे करियर का शुरूआती दौर है । अपने रेडियो में होने का लाभ उठाकर मैं हिन्दी और उर्दू के विद्वानों के बीच बैठकर लाभान्वित हो सकता हूँ । किन्तु र्मैंने अपने इस ज्ञानी विचार को सख्ती के साथ दबा दिया और पिछले छ: दिनों में भोपाली ज़बान सम्बन्धी अपने अर्जित ज्ञान को दोहराने लगा ।
यहाँ 'विद्यालय' को 'विधालय' कहा जाता है । महाराष्ट्र का भी प्रभाव है जैसे 'अठ्ठारह' को 'अठरा', 'कृति' को 'क्रुति' । 'मैं' और 'हैं' में 'अं' की मात्रा ग़ायब होती है लेकिन ऐसा अधिकतर नए भोपाल में होता है । मज़ेदार चीज़ें तो पुराने भोपाल में होती हैं । यहाँ आकर तो ऐसा लगता है कि कई 'स्वर' भोपाल पहुँच ही नहीं पाए हैं । अभी कल ही एक पुराने भोपाली अनाउन्सर ने ख़ुद से कम उम्र के एक नए नवेले डयूटी ऑफिसर को देखकर कहा
''एसे एसे केसे केसे हो गए
केसे केसे एसे एसे हो गए । ''
उस वक़्त मैं उसकी व्यथा भूलकर उसके द्वारा कहे गए शेर को उसी लहजे में पकड़ने की कोशिश करने लगा । मुझे इसमें मज़ा आने लगा था । फिर डयूटी के दौरान जितने भी फिल्मी गाने बजे मैंने उनको भोपालियों की तरह गुनगुनाने कोशिश की की थी - ''एक में ओर एक तू दोनों मिले इस ..... ।'' या फिर
''केसे केसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हें ।''
जिसने भी शोले देखी है उसे 'सूरमा भोपाली' का चरित्र याद रहता है । मुझे भी था लेकिन यहाँ आकर पता लगा कि शोले के 'सूरमा भोपाली' तो कहीं लगते ही नहीं हैं । जगदीप ने उस चरित्र में 'ऐ' की मात्रा की जगह एक मात्रा 'ए' और 'औ' की जगह 'ओ' का इस्तेमाल किया था । जैसे - ''एसे केसे पेसे दे दिंगे हम ?'' या फिर ''अरे ख़ाँ ये ओरतें-मोरतें मरद की बराबरी नहीं कर सकती क़सम से .....। '' यहाँ आकर पता चला कि कभी कभी इसके उलट भी होता है । यानि एक 'और' एक नहीं बल्कि एक 'ओर' एक दो होगा । मज़े की बात यह है कि जहाँ 'ओर' कहना होगा वहाँ यह 'और' हो जाएगा । जैसे - हटो मेरी 'और' मत आना । मैं इतना ही दोहरा पाया था कि कंडक्टर ज़ोर से चिल्लाया ''दो नम्बर वाले बड़ लो..... बड़ लो .....'' दो नम्बर आ
चुका था और बस से उतरते ही एक दुकान पर लिखा था 'दो नम्बर दूध की डेरी ।' मुझे परसाई जी की कहानी 'नम्बर दो की आत्मा' याद आ गई । अगर यह दूधवाला कुछ गड़बड़ कर भी दे तो इस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकती । यह तो पहले ही चेता चुका है - 'दो नम्बर दूध'.....। लोकेन्द्र से बातचीत के दौरान पता लगा कि न्यू मार्केट से आने वाली बसों के स्टाप के नाम पर आस-पास की बस्तियों और बाज़ारों के नाम पड़ गये हैं । जैसे दो नम्बर ..... पाँच नम्बर, सात नम्बर, दस नम्बर, ग्यारह नम्बर आदि । चार नम्बर ग़ायब है लेकिन 'सवा चार' और 'साढ़े चार' है हालाँकि इस रूट पर अब बसें नहीं चलती । 'सवा छ:' और 'साढे छ:' भी है । 'छ: नम्बर का मार्केट' और 'दस नम्बर का मार्केट' इस इलाक़े के बड़े मार्केट हैं । 'पाँच नम्बर पेट्रोल पंप' का असली नाम शायद ही कोई जानता हो वगैरह वगैरह । उस शाम लोकेन्द्र की बातें सुनकर मुझे भोपाली ज़बान के साथ-साथ नामकरण की इस विचित्र परम्परा के प्रति भी भारी आकर्षण महसूस होने लगा । पहले मुझे लगा कि भोपाली शायद नामकरण के मामले में आलसी रहे होंगे लेकिन भोपाल में महीना भर निकलते-निकलते मुझे अहसास हो गया कि भोपाली उच्चारण के मामले में ही नहीं बल्कि नामकरण के मामले में भी विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं । यहाँ नामकरण की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है । नाम और गुण का बहुत गहरा रिश्ता है । नाम के अनुरुप गुण न होने पर नाम प्रचलित हो ही नहीं सकता भले ही वह कितना भी ख़ूबसूरत क्यूँ न हो । भोपाल के बारे में थोड़ा सा अध्ययन किया तो पाया कि भोपाल का इतिहास जहाँ से मिलना आरंभ होता है वहीं से नामकरण की इस परम्परा के उदाहरण भी मिलने शुरू हो जाते हैं ।
ग्यारहवीं शताब्दी में परमार वंश के राजा भोज ने एक बस्ती बसाई । बस्ती राजा भोज की पाली हुई थी इसलिए नाम 'भोजपाल' पड़ना ही था फिर 'स्लैंग प्रेमी' भोपालियों ने 'भोजपाल' को भोपाल कर दिया । यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि 'स्लैंग' के मामले में भोपाली अमरीकियों से भी आगे हैं । पान या चाय की दुकान पर खड़े होकर आप कोई भी वार्तालाप सुनें तो आपको माँ के या भेन के कड़े जैसे कुछ जुमले सुनने को मिलेंगे । ('ब' और 'ह' मिलकर यहाँ 'भ' बन जाता है जैसे 'बहन' 'भेन' और 'बेहतरीन' 'भेतरीन') आपको लगेगा यह अर्थहीन तकिया कलाम हैं लेकिन दरअस्ल यह बहुत ही वीभत्स गालियाँ होती हैं जो स्लैंग में पेश की जाती हैं या सहज ही निकल जाती हैं । हाँ तो हम भोपाल के इतिहास से नामकरण की अनूठी परम्परा के उदाहरण ढूँढ रहे थे । अठ्ठारहवीं शताब्दी में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने जब भोपाल की पहली मस्जिद बनाई तो उसका नाम पड़ा 'ढाई सीढ़ी की मस्जिद' । आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इसका यह नाम क्यूँ पड़ा होगा । बाद में दोस्त मोहम्मद ख़ान ने भोपाल की क़िलेबन्दी के लिए शहर की सीमा पर सात दरवाज़े बनवाए । इन दरवाज़ों के पास अलग-अलग दिन हफ्तावार बाज़ार लगा करता था । ज़ाहिर है जिन इलाक़ों में यह दरवाज़े थे उनका नाम पड़ा - इतवारा, पीरगेट, सोमवारा, मंगलवारा, बुधवारा और जुमेराती (गुरूवारीय) । मुस्लिम बहुल बस्ती में जुमे यानि शुक्रवार के दिन छुट्टी रहा करती होगी शायद इसलिए जुमे के नाम पर किसी बस्ती या इलाक़े का नाम सुनने को नहीं मिलता । शनिवार को जहाँगीराबाद में अभी भी शनिचरी नाम की एक हाट लगती है लेकिन इस नाम को किसी स्थान से नहीं जोड़ा गया; इसे भोपाली लोगों की सूझबूझ ही कहेंगे । भोपाल की मशहूर शासक बेगम शाहजहाँ ने जब अपने चुनिंदा बारह ख़ादिमों के लिए
बारह आशियाने बनवाए तो इनका नाम 'बारह महल' पड़ गया । यह नाम और संक्षिप्त होकर आज 'बारामहल' रह गया है । भोपाल में पीरगेट इलाके में दुर्गा जी का एक सिध्द मंदिर है । कहते हैं, जब यह बन रहा था तो साम्प्रदायिक तनाव हो गया था और स्थिति को 'तनावपूर्ण किन्तु नियंत्रित' रखने के उद्देश्य से इस इलाके में कर्फ्यू लगा दिया गया । भोपालियों को मंदिर का नाम मिल गया; 'कर्फ्यू वाली माता का मंदिर' । इस मंदिर को अधिकतर भोपाली आज भी इसी नाम से पुकारते हैं । मस्जिदों के भी कमोबेश ऐसे ही नाम आपको मिल जायेंगे जैसे 'कल्लो बीया की मस्जिद', 'कुलसूम बी की मस्जिद', 'लतीफ़ पहलवान की मस्जिद', 'नन्ही बी की मस्जिद' वगैरह वगैरह । नामकरण की इस परम्परा का पुराने और नए भोपाल में समान रूप से निर्वाह किया जाता रहा है । स्टॉप के नम्बरों पर स्थानों के नामों की चर्चा की जा चुकी है । यह सारे स्टॉप नए भोपाल में ही आते हैं । नए भोपाल में जब कुल 1250 नए सरकारी क्वार्टर बने तो इस कॉलोनी का नाम 'बारा सौ पचास' ऐसा पड़ा कि छूटने का नाम ही नहीं लेता । यहाँ पर एक अस्पताल है 'जे.पी. अस्पताल' लेकिन भोपाली इसे 'बारा सौ पचास' अस्पताल के नाम से ही जानते हैं । इसी तरह नए शहर में ही 'पचहतर बंगले' और 'पैंतालीस बंगले' भी उसी नाम से जाने जाते हैं । श्यामला पहाड़ी पर आठ मंत्रियों के लिए सरकारी बंगले बनाए गए तो इस जगह का नाम 'आठ बंगले' पड़ गया । आज जहाँ भोपाल के आला नौकरशाह रहते हैं उस कॉलोनी का नाम है 'चार इमली' । अभी तक हमने ज्यादातर बेजान चीज़ों की बात की जिनका नाम उनको जानदार बना देता है लेकिन यार दोस्तों के उपनाम रखने में भी भोपालियों का कोई तोड़ नहीं है । जैसे रईस 'चप्पू', 'डब्बू' मियाँ, अज़ीम 'भोले', सईद 'चम्मच', सादिक 'मास्टर पतले', क़ादर 'ढक्कन', आरिफ 'मक्खन' वगैरह वगैरह । यह नाम ऐसे ही नहीं निकले हैं इन्हें देने वालों ने बाक़ायदा प्रसव पीड़ा झेली है और यह सब सम्भव होता है 'पटियों' पर । जी हाँ 'पटिए', जो भोपाली संस्कृति का अभिन्न अंग हैं । पटिए यानि जिन्हें दिन में दुकान का सामान जमाने के काम में लाया जाता था और दुकान बन्द होने के बाद यार दोस्तों के साथ बैठने के लिए । बाद में पुराने शहर में जगह-जगह स्थाई पटिए बन गए । रात के दो-ढाई बजे तक यह पटिए आबाद रहते । पटियों पर सिर्फ़ 'बतौलेबाज़ी' नहीं बल्कि सियासत, हॉकी जैसे मसलों पर भी चर्चायें होती थी । पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा भी एक ज़माने में पटियों पर बैठा करते थे । नवाबों के दौर में कई गुप्तचर रात

को पटियों पर बैठकर जनता के 'मूड' की टोह लेते और नवाब को ख़बर करते थे । इन्ही पटियों पर हँसी ठिठोली के वक़्त या परनिंदा का चर्खा चलाते चलाते कोई नया उपनाम कात लिया जाता जैसे चची 'सयानी', ख़ाला 'पेंदी', गोस्वामी 'एलबम', राशिद 'पिस्सू', रईस 'रस्सू ढीले' वगैरह वगैरह ।
यदि आप भोपाल में नए-नए आए हैं या कभी आपका भोपाल आना हो तो यहाँ के कुछ चुनिंदा पर्यटन स्थल देख कर बैठ मत जाइएगा । असली भोपाल को मेरी नज़र से देखिए और सुनिए । यक़ीन कीजिए आपके लबों पर हर वक़्त मुस्कान तैरती रहेगी । मैं पिछले अठ्ठारह सालों से यहाँ रह रहा हूँ लेकिन अब तक भोपाल से उकताया नहीं हूँ ।

5 comments:

Unknown said...

likhane ka andaj pasand aaya...keep writing...fir ki se..re

http://dr-mahesh-parimal.blogspot.com/ said...

नामों की महिमा है बिलकुल अपार,
बसे हाथीखाने में हैं पत्रकार।
रहते हैं अपने बिरानों के खास,
मोहल्ले का नाम घोड़ा नक्कास।
प्रोफेसर कालोनी प्रोफेसर विहीन,
है गुलशन आलम मगर गम में लीन।
परी है ना बाजार फिर भी प्रसिध्द,
कमला पार्क में पड़े रहते गिध्द।
गलियाँ ही गलियाँ पर कहाता चौक,
काजीपुरा को है भजनों का शौक।
एक को पुकारो तो सौ बाबूलाल,
यह है भोपाल !!

सबसे निराली यहाँ की है बोली,
कानों में जैसे मिसरी सी घोली।
कों खाँ पन्डाी कां जारीये हो,
सैनुमा से ई चले आरीये हो?
कों सेठजी कों जुलुम ढारीये हो,
फोकट का नइये जो खारीये हो।
कों वे ओ लड़के नईं सुनरीया है,
खामोखाँ कों टें टें कर रीया है।
देना खाँ बन्ने मियां चाय देना,
जर्दे के दो पान भी बाँध देना।
डरती है बोली से तलवार ढाल,
यह है भोपाल !!


जिधर देखिए हैं शायर ही शायर,
कुछ हैं छुपे तो कुछ हैं उजागर।
परेशान से जो मिलें यह सड़क पर,
समझिए कि आए हैं घर से भड़क कर।
पटियों पर बैठे करेंगे जुगाली,
शेरों की भरकर रखते दुनाली।
रोते हैं बच्चे कुढ़ती है बीवी,
मंजिल है इनकी मुशायरा टी.वी.।
शायरी पानी है शायरी भोजन,
शायरी इनका ओढ़न बिछावन।
नहीं इनका कोई पुरसाने हाल,
यह है भोपाल !!

डॉ. महेश परिमल

him said...

sir bahut maza aaya padh ke aisa laga jaise padhta hi rahun....kisi shehar ka aisa vivran isse pehle kabhi nahi padha....bahut bahut shandar hai sir.....do din se lucknow mein tha to aaj hi padh paaya hun....aur wo bhi sanjog dekhiye,,,2 maheene baad aaj hi bhopal aaya hun aur yahin baith kar bhopal ke baare mein padh raha hun.....aaj jab station par utra tab se hi bahut khushi ho rahi thi....wapas bhopal aa kar aake lekh ne khushi doguni kar di...

bahut maza aaya sir,,,,yahin hun jaldi milta hun aapse......

Unknown said...

Dekhna Taqreer ki lazzat ke jo usne kaha..
Maine ye jaana ke goya ye bhi mere dil me Hai..
Quadar Nawaz

Pradeep Kumar said...

i have never been to Bhopal and reading your blog on Bhopal tempts me to attempt at least one trip to this fabled place so delectably described by you. i remember your 'Bedil Dilli'... it was just a capsule... but your blogs vividly showcase your writing talent. i hope you put such work up to a larger audience & purpose than limiting it to just this blog... warm wishes.