नैनीताल के नाम

उत्तराखंड आन्दोलन जब अपने चरम पर था तब मैंने यह लेख लिखा था । प्रभाकर क्षोत्रिय जी ने इसे 'वागर्थ' में रम्य रचना के नाम से छापा । जिस क़स्बेनुमा शहर का ज़िक्र इसमें किया गया है - उसका नाम है नैनीताल । उत्तराखंड की स्थापना के सात साल बाद भी पहाड़ और ख़ासकर नैनीताल की स्थिति कमोबेश वैसी ही है जैसी इस लेख को लिखते समय थी …

सड़क

वह सड़क सिर्फ़ एक मील लंबी है और वह सिर्फ़ सड़क नहीं है । ऐसा नहीं कि उस एक मील की लंबाई के दोनों सिरों पर खाइयाँ हैं अलबत्ता दोनों सिरों पर उसकी प्रकृति ज़रूर बदल जाती है और साथ ही साथ नाम भी । वह एक मील किसी ख़ास मुकाम तक नहीं पहुँचाता बल्कि वह हर वक्त लोगों को, ज़िन्दगी को पकड़ने की कोशिश में लगा रहता है । अंग्रेज़ों के ज़माने में उसे मॉल रोड कहते थे । आज़ादी के बाद उसका नाम बदल दिया गया हालांकि नाम बदल जाने से वो सड़क बिल्कुल भी नहीं बदली । पहले की तरह ही उसे एक तरफ से नीली झील लगातार भिगोती रही और दूसरी तरफ एकदम चढ़ाई वाला पहाड़ ज्यों का त्यों खड़ा रहा । सड़क के बीच और किनारे चिनार और पाँगड़ भी वैसे के वैसे ही खड़े रहे ।

जब से मैंने होश संभाला तभी से हर शाम मल्लीताल से तल्लीताल तक की इस एक मील की दूरी को मापने की आदत सी लग गई थी । वैसे यह उस क़स्बेनुमा शहर की अपनी ख़ास संस्कृति भी कही जा सकती है । वहाँ के लगभग सभी लोग शाम को किसी न किसी बहाने मॉल पर उतर ही आते हैं । विशुद्ध रूप से घूमने न सही, सब्ज़ियाँ ख़रीदनी हों या भले ही मंदिर जाना हो लेकिन मॉल का एक चक्कर तो तयशुदा है । झील ने किनारे-किनारे लाठी लिए हुए कुछ अत्यन्त वृध्द लोग भी घूमते मिल जाएंगे जिन्हें देखकर लगेगा कि कोई अदृश्य शक्ति ही इन्हे चला रही है लेकिन वह शक्ति मेरे लिए दृश्य है । किसी ज़मीन की तासीर होती है कि आप कितना भी चलें, थकेंगे नहीं, कुछ ऐसी ही ज़मीन पर बनी सड़क है वह । मॉल पर घूमने का जुनून देखना हो तो बरसात या सर्दियों में देखिए । जब वहाँ सात-सात दिनों तक लगातार बारिश होती रहती है, तब भी मॉल के दीवानों के हौसले कतई पस्त नहीं होते, हाँ छतरियाँ उनके साथ जरूर जुड़ जाती हैं । बर्फ वाले दिनों, अकड़ी अंगुलिओं से मूंगफली ठूँगते हुए ये लोग उसी सहज भाव से घूमते मिलेंगे ।

एक अजीब सा भावनात्मक रिश्ता है मेरा उस सड़क के साथ और न जाने कितनी स्मृतियाँ उससे जुड़ी है....... बपचन से बेरोज़गारी तक की । वाटर बॉल, सॉफ्टी, भुट्टे, गुब्बारे....... । प्रभातफेरियाँ, परीलोक से आई तितलियाँ....... । गुदगुदी, फिकरे......। राजनीति थिएटर और दर्शन पर गरमागरम बहसें और निराशा भरी कविताओं वाले दिन ।

वह सड़क ज़िन्दगी का पर्याय न सही लेकिन उससे ज़िन्दगी चिपकी हुई ज़रूर है और उसके बल पर कई ज़िन्दा भी हैं - भुट्टे वाले रेस्तराँ वाले, होटल वाले, रिक्शेवाले , ट्रैवल एजेंसी वाले और कई तरह के पहाड़ी तोहफों की दुकानदारी करने वाले । भले ही मैं उस सड़क से सैकड़ों मील दूर होऊँ, अवसाद के क्षणों में मैं उस पर पहुँच ही जाता हूँ और हर बार एक नई शक्ति लेकर लौटता हूँ ।

इस बार ठीक चार साल बाद उस क़स्बेनुमा शहर लौटने का मौका मिला है । काठगोदाम से जैसे ही बस ने पहाड़ों पर चढ़ना शुरू किया, बस के साथ-साथ मेरा दिमाग़ भी हिचकोले खा रहा है । पता नहीं कैसी होगी वो सड़क...... न जाने क्या-क्या बदल गया होगा....... देखता हूँ इस बार तल्लीताल से मल्लीताल तक सड़क पर कितने परिचित मिलते हैं - वैसे वहाँ अब साथ वाला शायद ही कोई मिले...... नौकरी की तलाश में बी.ए. करते ही तो भागने लगे थे सब के सब...... मेरे आकाशवाणी में निकलने से पहले कितना अकेलापन महसूस करने लगा था मैं वहाँ ...... ऐसे में मेरी सबसे अच्छी मित्र वो सड़क ही तो थी...... मैं जब जब उस पर अकेला घूमता, उदास होता तो वह मुझे बहलाती, मुझसे बातें करती...... ''याद हैं तुम्हें उस दिन यहाँ पर ऐसा हुआ था........।'' बस लंबे मोड़ पर घूमकर तल्लीताल 'डाट' पर लग गई है । डाट यानि जहाँ से तालाब का पानी ख़तरे के निशान से ऊपर हो जाने पर निकाला जाता है और डाट यानि उस शहर का स्टेशन । डाट से तल्लीताल से मल्लीताल तक की वह सड़क पूरी की पूरी दिखाई देती है और जब पानी ठहरा हो तो उसका अक्स भी । आज अक्स के साथ-साथ सड़क भी ठहरी हुई है । सारी नावें किनारों पर लगी हैं और झील का पानी जमा हुआ सा दिखता है । मुझे मालूम था कि लोग उत्तराखंड और पहाड़ों की अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं फिर सर्दियाँ तो हैं ही । ऐसे मैं सैलानी निश्चित रूप से ही नही के बराबर होंगे, जानता था, किंतु ऐसे सन्नाटे की उम्मीद न थी । इन वर्षों में मैं उस शहर की तरक्की से भी नावाकिफ़ था । हाँ, चिठ्ठियों के ज़रिए यह ज़रूर जानता था कि कष्मीर जाने वाले ज्यादातर सैलानी इधर का रुख करने लगे हैं इसलिए इस बीच काफ़ी होटल बन गए हैं । लेकिन आज मैंने खुद अपनी ऑंखों से पहाड़ की फटी छाती देखी । जहाँ देवदार और बाँज बसते थे वहाँ कंक्रीट के रंग बिरंगे कुकुरमुत्ते उग आए थे । फटी छाती का मलवा बारिश में बहकर सड़क पर उतर आया था । हड़ताल और बंद के दौर में सफ़ाई नहीं हुई होगी, जगह-जगह मलवे और कूड़े के ढेर लगे थे । मुझे याद है कि आगरा में ताजमहल के आसपास की सफ़ाई की बात को लेकर एक गाइड ने वहाँ मुझसे कहा था कि मेरे शहर जैसी साफ़ सड़कें उसने कहीं नहीं देखी । उसका अभिप्राय मॉल रोड से ही था । तब मुझे बहुत फ़क्र हुआ था अपने क़स्बेनुमा शहर पर । गंदगी से ढकी वही सड़क आज बेजान सी लेटी थी । उस पर न भुट्टे वाले थे न मूंगफली वाले, न रिक्शे वाले न होटल के गाइड । कुछ इक्के-दुक्के लोग थे जो निश्चित तौर पर किसी न किसी काम के सिलसिले में ही निकले होंगे । उनके चेहरों पर अनिश्चितता और दहशत साफ़-साफ़ पढ़ी जा सकती थी । मुज़फ्फ़नगर वाली घटना को बीते लगभग तीन माह होने को आए लेकिन लगता है कि कल ही इन लोगो ने सबकुछ अपनी ऑंखों के आगे घटता देखा है । उत्तराखंड के लिए लड़ने वाले लोगों पर हुए अत्याचार के संबंध में अख़बारों में पढ़ा ज़रूर था लेकिन उसे महसूस नहीं कर पाया था । आज कुछ अंदाज़ा लगा पाया हूँ । लगभग चौथाई सड़क पार कर चुका हूँ लेकिन अभी तक कोई परिचित नहीं मिला । मोड़ पर घूमते हुए मेरी नज़र झील पर है - पानी उसी तरह जमा हुआ सा दीखता है । नज़रें वापस सड़क पर लौटती हैं और मैं बुरी तरह चौंक पड़ता हूँ । सामने सड़क के बगल में पहाड़ को काटकर बनाए गये तीन चार मंज़िले होटलों की कतार खड़ी है । मैंने याद किया यहाँ पर पांगड़ को पेड़ों का झुरमुट हुआ करता था । अक्टूबर के महीने में जब पत्ते गिरते तो सड़क पर पीले रंग का कार्पेट सा बिछ जाया करता था । इसी सड़क पर घूमते समय एक बार दादाजी ने बताया था ''भव्वा तुझे मालूम है, अंग्रेज़ों के टाइम मॉल रोड में ट्रक नहीं चल सकते थे । भारी गाड़ियों को वो तल्लीताल में ही रुकवा देते थे और मॉल रोड के ऊपर वे जो पहाड़ है ना, शेर का डाँडा,' इस पर कोई मकान नहीं बना सकता था और जो ज़रूरी थे वो लकड़ी के बनाए जाते थे ताकि पहाड़ पर और इस सड़क पर ज़ोर न पड़े ।'' दादाजी की वह बात शायद इसलिए याद हो गई क्योंकि तब मुझे बहुत अटपटा सा लगा था कि इतने बड़े पहाड़ पर या इतनी चौड़ी सड़क पर मकानों का भला क्या ज़ोर पड़ सकता है लेकिन कुछ ही वर्षों बाद मुझे लगा कि वाकई अंग्रेज़ कितने चिंतित थे पहाड़ के लिए, इस सड़क के लिए । हालांकि उनके लिए यह शहर एक 'नॉस्टेल्जिया' था - टेम्स नदी का किनारा, लंदन की कुहासे भरी शामें और पानी के विस्तार को अपनी खिड़कियों में समेटे कुछ मध्यम रौशनी वाले रेस्तराँ और वे अपने 'नॉस्टेल्जिया' को सुरक्षित रखना चाहते थे लेकिन कुछ भी हो उन्होंने इसे बचाये तो रखा ही था ।

मुझे बहुत ग़ुस्सा आने लगा । कौन पास करता है यह नक्शे ...... इनकी संवेदनायें मर गई हैं क्या...... कैसा तंत्र है यह...... क्यों खिलवाड़ कर रहे है ये पहाड़ के साथ......। गले में हल्का सा दर्द होने लगा है । लाइब्रेरी वाला मोड़ आ चुका है अब सड़क के किनारे झील पर झुके मजनू के पेड़ों का सिलसिला शुरू होगा लेकिन ये क्या-ये सड़क को क्या हुआ...... ये क्यों झुकी है झील की तरफ ? मेरा दिल ज़ोरों से धड़कने लगा है । झील वाले छोर की तरफ सड़क का किनारा जगह-जगह से टूटकर पानी में समा चुका है । कई मंजनू के पेड़ अब वहाँ नहीं हैं, कुछों की जड़े ऊपर हैं और सर पानी में डूबा हुआ । काफ़ी दूर तक सड़क का यही हाल है । उसके आगे सड़क को बचाने के लिए 'रिटेनिंग वॉल' बनाई गई है किन्तु दबाव से उसका पेट किसी गर्भवती महिला की तरह फूला हुआ है । मेरे गले का दर्द बहुत तेज़ हो गया है । सड़क बहुत उदास सी दीखती हैं । मेरा क्रोध भी धीरे-धीरे उदासी का रूप ले लेता है । चलते-चलते आज थकान महसूस करने लगा हूँ । अचानक सड़क मुझसे बातें करने लगी है- ''तू क्यों दुखी होता है रे ! मैं अपने लिए उदास थोड़े ना हूँ, मुझे मालूम है मुझ पर दबाव हैं, मै बूढ़ी हो रही हूँ, टूट रही हूँ लेकिन यह मेरे दुख का कारण नहीं । मैं इसलिए उदास हूँ कि मेरी गोद में बड़ा हुआ एक ख़ूबसूरत सा नौजवान मेरी अस्मिता के लिए आवाज़ उठाने गया था, तीन महीने होने को आए, लेकिन वो लौटकर नहीं आया । मैं इसलिए उदास हूँ कि मैं एक अर्से से किसी को खुशियाँ नहीं बाँट सकी...... मैंने कब से उस नौजवान जैसी खिलखिलाहटें नहीं सुनी ।''

3 comments:

Dr. Mahesh Parimal said...

राकेश भाई,
आज आपके ब्लॉग पर आया और सीधा नैनीताल चला गया। वहाँ आपके साथ माल रोड पर घूमा। सचमुच बहुत दु:ख हुआ। उदास कर दिया, आपने उस सड़क की दास्तान बताकर। दिल भर आया। में पर्यावरण प्रेमी हूँ, जहाँ कहीं भी प्रकृति पर कांक्रीट के जंगल को हावी होता देखता हूँ, अपने आप पर ही गुस्सा आने लगता है। क्या करुँ? हमसे तो अच्छे ऍंग्रेज, जिन्हें प्रकृति को बचाने की कुछ तो तमीज थी, हम तो बिलकुल ही बद्तमीज हो गए हैं। गांधीजी ने सही कहा था- आजादी प्राप्त करना मुश्किल नहीं है, पर क्या आजादी मिलने के बाद तुम सब उसे बचा पाओगे। आज उनकी बातें सच साबित हो रही है। आजादी को तो हम बचा नहीं पाए, उससे ही खिलवाड़ करने लगे हैं।
राकेश भाई अपकी भावनाओं को और अधिक लोग पढ़ें, इसलिए उसे आलेख को अपने ब्लॉग में ले रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि अधिक से अधिक लोग उस सड़क की पीड़ा को समझें, ताकि हमारी ही ऑंखों के सामने किसी सउक की मौत न हो। आलेख के माध्यम से आपकी पीड़ा को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। इतना अच्छा कब से लिखने लगे भाई?
बहुत-बहुत बधाई, अपनी भावनाओं को शब्द देने के लिए। कितने लोग ऐसे हैं, जो ऐसा सोचते तो हैं, पर लिख नहीं पाते। आपने उन अबोलों के लिए शब्द दिए हैं। एक बार फिर बधाई। कभी अवसर मिला, तो एक बार नैनीताल अवश्य जाऊँगा और उस सड़क को आपकी ऑंखों से देखने की कोशिश करुँगा।
महेश परिमल

him said...

main kabhi nainitaaal nahi gaya lekin is lekh ko padhne ke baad main nainitaal ko mehsoos kar sakta hun.....................bahut taazgi lagi mujhe is lekh mein.........................

himanshu

Unknown said...

wah...seriously chachu...
isse behter expression maine kabhi nahi dekha..
hats off to you...
aankhein nam ho gayin...thanyu! thankyu for the xperience:)